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  • एक आत्मीय भावपूर्ण संस्मरण : डांडिया नाइट्स के आने के पहले कैसा होता था भिलाई का दुर्गा पूजा ? ‘छत्तीसगढ़ आसपास’ की संपादकीय मंडल की सलाहकार सदस्य एवं ‘स्वयंसिद्धा’ की निदेशक डॉ. सोनाली चक्रवर्ती द्वारा लिखा गया यह आलेख अवश्य पढ़ें- ‘भिलाई का दुर्गा पूजा’

एक आत्मीय भावपूर्ण संस्मरण : डांडिया नाइट्स के आने के पहले कैसा होता था भिलाई का दुर्गा पूजा ? ‘छत्तीसगढ़ आसपास’ की संपादकीय मंडल की सलाहकार सदस्य एवं ‘स्वयंसिद्धा’ की निदेशक डॉ. सोनाली चक्रवर्ती द्वारा लिखा गया यह आलेख अवश्य पढ़ें- ‘भिलाई का दुर्गा पूजा’

4 months ago
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• डॉ. सोनाली चक्रवर्ती

पहले भिलाई में दुर्गा पूजा का आयोजन होता था डांडिया /गरबा नाइट्स का नहीं

बरसात के बाद जब शरद की नर्म सुनहरी धूप खिल उठती थी, जब सबके बगीचे में पारिजात बिखर जाते थे,जब साइकिल पर फेरी लगाकर मीहीदाना और नारियल लड्डू बेचने वाले हांक लगाने लगते थे,जब पड़ोसी पूछने लगते थे -“मिट्ठू दुर्गा पूजा का जामा ली कि नहीं”
तब पता चलता था कि बस दुर्गा पूजा आने वाली है।
यह बंगाली घरों की सफाई और सजावट का समय होता I
नए कपड़े खरीदने थे चाहे अमीर हो या गरीब दुर्गा पूजा में नए कपड़े ही पहने जाते हैं उनकी कीमत नहीं देखी जाती थी लेकिन सप्तमी अष्टमी नवमी की शाम नए कपड़े पहनकर सेक्टर -6 काली बाड़ी जाने का आकर्षण ही कुछ और था। हमारे लिए
दुर्गा पूजा का अर्थ सेक्टर 6 काली बाड़ी जाना था I

पूरे भिलाई के बंगाली वहां एकत्रित होते थे, एक साथ पंक्तिबद्ध होकर दोपहर में खिचड़ी भोग ग्रहण करते थे, अड्डा जमाते थे और शाम को सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आनंद लेते थे।
ना डीजे था ना जोरदार साउंड सिस्टम वाला माइक लेकिन जो भी कार्यक्रम होता था उसमें बड़ी आत्मीयता होती थी I कोलकाता (पं. बंगाल) से जात्रा दल बुलाए जाते थे और बड़े अच्छे गायको को सुनने का भी सौभाग्य प्राप्त होता था I
नवदुर्गा की पूजा उस समय नवरात्रि नहीं कहलाती थी I
नवदुर्गा स्थापना की जाती थी सिर्फ बमलई मंदिर सेक्टर 6 पोस्ट ऑफिस कॉलोनी में और उसके बाद सेक्टर 4 मुख्य बाजार के अंदर (आज भी) नवदुर्गा स्थापना होती थी।

पूरे भिलाई में बंगाल की संस्कृति छा जाती थी I कोई किसी भी प्रदेश का हो बंगाल के रंग में रंग जाते थे I

बंगाली सहेलियों के साथ उन्हीं की मम्मी से साड़ी लेकर पहनना और अष्टमी की सुबह साड़ी पहन के कालीबाड़ी जाने का आकर्षण अवर्णनीय है I
जो उस समय के भिलाई वासी है इस बात से वाकिफ होंगे I
पहली पहली साड़ी तकरीबन हर एक बंगाली लड़की ने अष्टमी की सुबह पहनी होगी।

उस समय लगता था भिलाई के प्रत्येक बंगाली जन एक दूसरे को जानते हैं,पहचानते हैं,रिश्ता रखते हैं।
कहीं डांडिया गरबा नहीं होता था I
सेक्टर 7 पानी टंकी, सेक्टर- 9, सेक्टर 8, सेक्टर 4 बीकेपी और शायद सेक्टर 1 व 2 में भी (ठीक से याद नहीं)
बहुत कम दुर्गा पूजा होते थे I
तब ऑटो का चलन नहीं था
रिक्शा किराए पर लेकर हमारा परिवार पंडाल देखने निकलता था मां,बाबा, छोटू और मैं I

घर में छोटे होने का ये फायदा होता है कि उम्र कितनी भी बढ़ती रहे उनका नाम छोटू ही होता है।
हां तो! बाबा सेक्टर 6 A मार्केट के मोड़ पर जो रिक्शा स्टैंड था वहां से किसी रिक्शा वाले को बुक करके लाते थे। एलआईसी कॉलोनी के हमारे क्वार्टर में पहले उसे चाय पानी करवाया जाता था उसके बाद हम चारों रिक्शा में निकलते थे शाम 6:00 बजे। इसमें सेक्टर-1, सेक्टर 4, सेक्टर 7, पानी टंकी मैदान, सेक्टर 8, और फिर आखिर में कालीबाड़ी
हम जहां जो खाते थे रिक्शे वाले अंकल को भी खिलाया जाता था। भिलाई में तब कोई होटल रेस्टोरेंट नहीं था सिर्फ इंडियन कॉफी हाउस सेक्टर 10 और सेक्टर 9 हॉस्पिटल के बाजू में था I हम वहीं मसाला डोसा खाते थे और रिक्शा वाले को भी अपने साथ टेबल पर खिलाया जाता था I बाबा उसे सीखाते भी थे कि -“तुम इतने कम पैसे में क्यों लेकर जा रहे हैं हमको?इतना कम पैसा मत बोलना फिर तुम्हारा घर कैसे चलेगा?” उसको थोड़ा ज्यादा ही पैसा देते थे I

अंतिम पड़ाव कालीबाड़ीI उस समय भी और आज भी कोई कहीं भी घूमे फिरे भिलाई में रोज रात को कालीबाड़ी पहुंच कर ही दुर्गा पूजा का समापन किया जाता है।

सेक्टर -6 कालीबाड़ी की यादों से मेरी उम्र का कोई भिलाईवासी अछूता नहीं होगा।
सुबह-सुबह घरों में पूजा अर्चना कर हम सब सज धज के तैयार होते थे।
सौंदर्य प्रसाधन के नाम पर तब हमारे घरों में होता था एक पोंड्स का पाउडर, बोरोलिन और काजल पेंसिल। इन्हीं तीन चीजों से श्रृंगार करके मेरी उम्र की हर लड़की खुद को विश्व सुंदरी समझती थी। दुर्गा पूजा की खुशी की चमक तो चेहरे से कोई छीन नहीं सकता। एक दूसरे से मांगे हुए इयररिंग, मां की चूड़ियां,कुछ हैंडमेड ज्वेलरी और बस बिना लिपस्टिक बिना परफ्यूम के हमारा श्रृंगार तैयार आज लगता है इतने प्रसाधन होते हुए भी वह रूप हासिल नहीं पाएंगे।

एक बार अष्टमी की रात माँ से छुपा कर होठों को लाल करने के लिए बोरोलीन में मां का सिंदूर थोड़ा सा मिला कर मैंने होठों पर लगा लिया I बरसों बाद पता चला कि सिंदूर ज़बान पर लगने से जान भी जा सकती है। उस दिन तो किसी श्रृंगार की देवी ने प्राणदान दिए समझिए।

आज के बच्चे तो शायद समझ भी नहीं पाएंगे कि जो मांगो वह हासिल नहीं करना भी कोई अनुभव था। विवाह के पहले मैंने कभी लिपस्टिक छुवाई भी नहीं।

कितनी भी गर्मी लगे हम बाल खोलकर साड़ी पहन के काली बाड़ी जाते थे। “बाल खोलकर” शब्द का प्रयोग मैंने इसलिए किया है कि अभी की बच्चियां जैसे हम दिन रात बाल खोलकर नहीं घूम सकते थे I हमें बाल खोलने के लिए ‘स्पेशल ऑकेजन’ पर बाबा के ‘परमिशन’ की जरूरत होती थी वह भी सिर्फ दिन में क्योंकि रात को मेरे जैसे ‘लंबे बालों को भूत पकड़ता है’ ऐसा हमें बताया जाता था और ऐसे ‘बाल खोलकर पागल जैसा’ घूमने की कोई इजाजत हमें नहीं थी I दो चोटी में बालों को कस के रखना पड़ता था I दुर्गा पूजा के 2 दिन छूट मिलती थी उसे छूट का हम पूरा प्रयोग करते थे।

मां के ही ब्लाउज को कच्ची सिलाई मार के अपने साइज का बनाया जाता था और पड़ोस पड़ोस की सहेलियां भी हमारे घर की अलमारी से साड़ी लेती थी जिन्हें मां ही पहनाती थी और फिर हम सब मिलकर कालिबाड़ी जाते थे I दुर्गोत्सव मानो अपने पूरे रस, रंग, गंध के साथ पूरे भिलाई के आसमान पर छा जाता था।
दोपहर 3:00 बजे तक घर आकर हम आराम करते थे शाम को फिर से सज धज के कालीबाड़ी पहुंच जाते थे। पहले कालीबाड़ी के अंदर दुर्गा पूजा होता था जहां अब शनि मंदिर है। उसके साइड वाली दीवार मे छोटे-छोटे झरोखे बने थे कालीबाड़ी के पंडित महाशय जी के घर के ठीक सामने I वहां पर भीड़ लगी होती थी आरती के बाद धुनुची आरती देखने के लिए (तब उसे धुनुची नाच का नाम नहीं दिया जाता था) यह आरती का ही स्वरूप था I उसमें धक्कामुक्की करके बड़ी मुश्किल से किसी एक झरोखे पर अपनी आंख टिकाने लायक जगह हम ढूंढते थे और वहां घुस के खड़े हो जाते थे और घंटो तक आरती देखते थे I

उसके बाद बाहर निकाल कर लोगों से मिलना जुलना
जी हां “लोगों से मिलना जुलना” भिलाई के हर त्यौहार की खासियत होती थी I पंडाल में तब खाने पीने की इतनी दुकाने नहीं होती थी I कोई एक स्टॉल लगता था जिसमें वेजिटेबल चॉप मिलता था। शायद एक दो चाट पापड़ी की दुकान भी I एक प्लेट कटलेट खाकर हमें मानो दुनिया भर की पार्टी का आनंद आता था
फिर घर आकर हम मां का बनाया हुआ खाना ही खाते थे।
शाम को कालीबाड़ी में रोज संस्कृति कार्यक्रमों का आयोजन होता था। कालीबाड़ी के सामने वाले मैदान में ठीक बीचो-बीच मंच बनाया जाता था जो चारों तरफ से खुला होता था I उसके चारों तरफ दरी बिछाई जाती थी जिस पर बैठकर हम आधी रात तक जात्रा सुनते थे और कभी मधुर संगीत का आनंद लेते थे I बिना डीजे, बिना साउंड सिस्टम,बिना शोर शराबे, हल्ला गुल्ला, बिना लड़ाई झगड़ा, दंगे फसाद वह भिलाई का दुर्गा पूजा बहुत याद आता है

कालीबाड़ी हमारे घर से कितना भी दूर हो सुबह शाम ढाक की आवाज कान में आने लगती थी I जो जिस सेक्टर में रहता है मुझे लगता है पंडालों से ढाक घंटे की आवाज कानों तक आती थी क्योंकि गाड़ियों और डीजे के शोर में आज के जैसे हमारे श्रवण यंत्र को ध्वस्त नहीं किया हुआ था I

आज पूजा पंडाल का मतलब होता है नवरात्रि और नवरात्रि का मतलब होता है डांडिया और गरबा, गरबे का मतलब डीजे

पहले किसी पंडाल के पास पहुंचने थे तो हेमंत कुमार, संध्या मुखोपाध्याय,मानवेन्द्र, मान्ना डे जी के गीत सुनाई देते थे। आज 1 किलोमीटर दूर से दिल की धड़कने बढ़ जाती है जब वह डीजे की धमक कानों में आती है।
चारों तरफ डांडिया के ड्रेस में लड़के लड़कियों का डांस दिखाई देता है। मुझे यह कहना चाहिए या नहीं चाहिए मुझे नहीं पता पर यही देखा जाता है कि डांडिया करते हुए बीच में पंडाल से बाहर आकर लड़के लड़कियां खुलेआम सिगरेट के कश लगाते हैं और बोतलों से शराब पीते हैं और फिर जाकर डांडिया नाचते हैं यह सीन इतना आम है कि किसी को शायद खटकना भी बंद हो गया।

बचपन वाला दुर्गा पूजा शायद अब कभी नहीं आएगा।

किस दिन कौन सा ड्रेस पहनना है यह उसकी कीमत से तय होता था I हमारे खरीदे कलेक्शन में जो सबसे महंगा होता था उसे अष्टमी की शाम को पहना जाता था,जो सप्तमी की शाम को पहना जाता था वही नवमी की सुबह पहना जाता था..यह सोचते हुए कि उस दिन रात को तो ज्यादा लोगों ने नहीं देखा होगा। षष्ठी को बच्चों को नया कपड़ा पहनाया जाता है इसीलिए सबसे सस्ता (और सूती) वाला षष्ठी के लिए रखा जाता था। दशहरा में हम कहीं नहीं निकलते थे। सिंदूर खेला से वापस आकर मां दिन भर मिठाइयां बनाती थी और हम लोग बार-बार किचन के चक्कर लगाते थे जिसमें छोटी वाली निमकी, नारियल कीस के बनाये गए नारियल के लड्डू, बेसन लड्डू,सूजी लड्डू,शक्करपारे शामिल होते थे I तब दुकानों में यह सारी मिठाइयां नहीं मिलती थी। आज लगता है कि बहुत अच्छा था जो नहीं मिलती थी। उस समय घर में कुछ भी बनता था तो सिर्फ अपने लिए नहीं वह पूरे पड़ोस में वितरित होता था मां थाली में मिठाइयां सजा कर देती थी और मैं और संध्या उसको क्रोशिया के कवर से ढक के सबके घर-घर पहुंचा आते थे। कोई भी थाली खाली वापस नहीं आती थी I कोई उसमें कुछ फल रखता था और कोई घर की बनी कोई अन्य मिठाइयां I मैं आज सोचती हूं तो मुझे बहुत हैरानी होती है कि सभी के घरों में उसे वक्त मम्मीयों के हाथ के बने हुए स्नेक्स (नाश्ते का समान)होता था।
‘सेलिब्रेशन चॉकलेट’ बांटने की हमें कभी जरूरत नहीं पड़ी।
दशहरा के दिन मान एक उदासी से भर जाता था I हम कभी सड़कों पर विसर्जन देखने के लिए खड़े नहीं हुए I

क्योंकि उससे जरुरी काम हमारे जिम्मे था I हम दिन भर हम रावण बनाते थे

इसमें अनिल भैया, किरण भैया सबसे ज्यादा मदद करते थे और संध्या तो थी ही कलाकार I हमारे पुराने कॉपियों के बड़े गत्ते से रावण के चेहरे बनते थे उस पर रावण का मुंह ड्राइंग करना मेरा काम था और घास, पैरा, कागज,पुराने कपडे लाकर रावण की बॉडी बनाई जाती थी जिस पर रंग-बिरंगे कपड़े पहनाए जाते थे I मैं आज सोचती हूं कि मोबाइल में खोये बच्चे तो यह क्रिएटिविटी जान ही नहीं सकते जो हम रावण से लेकर होली दहन की तैयारी में लगाते थे।
शाम को कॉलोनी के बीचों-बीच रावण दहन का प्रोग्राम होता था। हम सब मिलकर देर रात तक घर की बनी मिठाइयां खाते हुए, हंसी मजाक गीत संगीत का कार्यक्रम करते थे I

बचपन वाला यह दुर्गा पूजा ब कभी वापस नहीं आएगा।

पहले कालीबाड़ी के बड़े गेट से प्रवेश करने का अर्थ था सारे परिचित चेहरों का एक साथ दिखना।
बहुत सी छोटी-छोटी प्रेम कहानियाँ थी जो पूजा के चार दिन के लिए चलती थी और अगले साल तक के लिए मुल्तवी हो जाती थी I कोई किसी को बस चुपचाप देखा करता था और फिर साल भर उसकी सूरत दिखाई नहीं देती थी। ऐसे निश्छल प्रेम के किस्से भी सहेलियां आपस में एक दूसरे को बताती थी और अगले साल फिर ढूंढती थी कि ‘वह नीली शर्ट वाला लड़का’ भी आएगा या नहीं पर कोई बदतमीजी नहीं, कोई असभ्यता नहीं सिर्फ एक बार का देखना और उस लड़के या लड़की का साल भर याद रह जाना I सब के आंखों का पानी और संस्कार अक्षुण थे।
आजकल के बच्चे इस एहसास को कोई ना तो नाम दे पाएंगे ना यह महसूस कर पाएंगे।

कमाल की बात है उस समय हमारे पास ना कैमरा था ना कोई फोटो लेने की सुविधा लेकिन हर एक दृश्य मन पर ऐसे बना हुआ है मानो हम उसे चलचित्र के रूप में देख सकते हैं।
आज किसी भी पंडाल में प्रवेश करने का अर्थ है पहले तो बातचीत का सुनाई देना बंद हो जाना, एक भी परिचित चेहरों का ना दिखना, डांडिया का सेटअप जिसमें डांडिया करने वाले 50 और उसे देखने वाले 500। मानो गोल-गोल घूमते लड़के लड़कियों को देखने की सिवाय दुर्गा पूजा का और कोई अर्थ नहीं I

ओणम के दिन मैंने लिखा था आज पूरा भिलाई केरल है। पहले दुर्गा पूजा के चार दिन पूरा भिलाई बंगाल होता था लेकिन…..
अब नहीं पता कि बचपन वाला दुर्गा पूजा कभी वापस आएगा या नहीं

हे मां दुर्गा
चाहे जो हो भिलाई का भाईचारा, सहृदयता,आपसी प्रेम बनाए रख।
बेटियों का सम्मान बनाए रख,लड़कों के हृदय में महिलाओं के प्रति श्रद्धा का विस्तार कर

[ •डॉ. सोनाली चक्रवर्ती ‘स्वयं सिद्धा’ की अध्यक्ष हैं एवं स्वतंत्र पत्रकार व लेखिका हैं. *• संपर्क : 98261 30569 ]

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