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पर्व विशेष : छत्तीसगढ़ की कृषि भूमि में ज्योति पर्व दीपावली- टीकेश्वर सिन्हा ‘गब्दीवाला’
“बरसा बिगत शरद रितु आई।
लछमन देखहु परम सुहाई।”
गोस्वामी तुलसीदास जी की कालजयी ग्रंथ रामचरितमानस के चतुर्थ सोपान अरण्यकांड की उक्त पंक्तियाँ प्रकृति की आश्विन-कार्तिक मास की शारदेय छवि को उजागर करती है। प्रकृति के सौंदर्य की झलकियाँ दिखती हैं इन शब्दावलियों में। तभी तो कार्तिक मास के दोनों पक्ष- शुक्ल व कृष्ण की शीतलता दैवीय अनुभूति से सबको सराबोर करती है। निसर्ग में एक अभिनव परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगता है। व्यतीत होते हुए इस चौमासे में हरीतिमा से स्वर्णिम होती हुई छत्तीसगढ़ की उर्वराभूमि नयनाभिराम लगती है। पावस ऋतु अपने अंतिम पड़ाव पर कार्तिकमास को प्रकाशपर्व दीपावली का उपहार भेंट करती है; और समूचे छत्तीसगढ़ की कृषिभूमि ज्योति पर्व दीपावली को “देवारी” सम्बोधित करते हुए बड़ी आत्मीयतापूर्वक उनकी हार्दिक पहुनाई करती है। साथ ही, छत्तीसगढ़ की धरा पाँच दिन- धनतेरस , नरक चौदह, सुरहोती (लक्ष्मीपूजन) गोवर्धनपूजा (अन्नकूट) एवं मातर (भाईदूज) के अतिथि सत्कार में मग्न हो जाती है। हमारे छत्तीसगढ़ के प्राकृतिक परिप्रेक्ष्य में दीपावली का अपना एक विशेष महत्व है। ग्राम्यांचल में दीपावली अर्थात् देवारी मनाने की परम्परा बड़ी निराली है।
ग्रामीण क्षेत्र में धनतेरस का महत्व-
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पौराणिक कथाओं में कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की तेरस तिथि को समुद्र मंथन से भगवान धन्वंतरि का प्रकटोत्सव वर्णित है। अतः इस दिन प्रभु धन्वंतरि की पूजा-पाठ प्रासंगिक है। परन्तु हमारे छत्तीसगढ़ के देहात अंचल में दीवाली मनाने की बड़ी अनूठी परंपरा है। लोगों के हृदय सागर के बहुप्रतीक्षित तरंगों में हर्षोल्लास की बूँदें परिलक्षित होती हैं। लोग दिन भर अपने काम-काज में व्यस्त होते हैं। स्वर्णिम साँझ को मन प्रफुल्लित हो उठता है। दीपावली की तैयारी इस दिन सम्पूर्णता को प्राप्त करती है। लोग अपनी हैसियत मुताबिक विशेष खरीदारी करते हैं। निकटस्थ अमावस की काली रात को स्वच्छ-उजला घर-आँगन दीये की रोशनी से प्रकाशमय हो जाता है। इस समय न केवल घर-द्वार, खेत-खलिहान व गाँव-गली में नवीनता परिलक्षित होती है; बल्कि किसान भाइयों के हृदय में भी नूतन भाव जागृत हो उठता है।
गाँव-देहात और नरक चौदस-
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नरक चौदस से संबंधित मान्यता है कि इस दिन द्वापरयुग शिरोमणि श्रीकृष्णचंद्र जी ने नरकासूर का वध किया था। इस दिन यम पूजा का भी बड़ा महत्व है। हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में नरक चौदस को लोग लक्ष्मी व गोवर्धनपूजा की तैयारी में जुटे हुए होते हैं। किसान भाइयों के दिन का समय खेतों में बीतता है। वे धान की सुनहरी व अधपकी बालियों को प्रसन्नचित्त निहारते हैं। इस दिन बेटाजात (पुरुष वर्ग) त्यौहार के मुताबिक अपने गृहस्थी का सामान जुटाने में लगे होते हैं। माईंलोगिन (महिला वर्ग) घर-द्वार की साफ-सफाई को अंतिम रूप देती हैं। नरक चौदस के दिन ही सुबह नदी-तालाब से एक नये कलशे में पानी लाकर कोठे (गौशाला) के मुख्य द्वार पर रखा जाता है। कलशे पर एक नया मलवा रखते हैं। मलवे में नई धान-फसल के दाने रखे जाते हैं। इस पर एक नया दीपक प्रज्ज्वलित किया जाता है।
लक्ष्मी-पूजन दिवस सुरहोती-
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हमारे छत्तीसगढ़ के ग्राम्यांचल में सुरहोती को महादेवी लक्ष्मी पूजन उत्सव का खुशनुमा वातावरण बना रहता है। बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक के चेहरे पर खुशियाँ झलकती है। लोगों के बीच खेती-किसानी के साथ-साथ दीवाली की भी गोठबात होती है। घर-द्वार की स्वच्छता से जगमगाहट बिखर जाती है। पीत वर्ण धूप से वातावरण बड़ा मनमोहक लगता है। सर्वत्र नयेपन का संचार होता है। इस दिन बच्चों की किलकारी भरती टोलियाँ खोर-गलियों की रौनक होती है। इनकी मौज-मस्ती पटाखों में होती है। सुनहरी शाम की लालिमा खत्म होते ही घर-आँगन मिट्टी व नये चावल के आटे के दीये से जगमगा उठता है। फरा-दीया इस दिन का विशेष व्यंजन होता है। लोग नये कपड़े पहन कर देवी लक्ष्मी की पूजा-अर्चना करते हैं। सुख-समृद्धि की कामना करते हैं। गऊ-धन की पूजा होती है। प्रसाद वितरण होता है। प्रेम व सौहार्द्र की मिठास से लोगों के दिल की कड़वाहट मिट जाती है।
सुरहोती को ही छत्तीसगढ़ का एक बहुत लोकप्रिय लोकगीत सुआगीत गाने की परम्परा की शुरुआत होती है।
“तरी नरी न हा मोर
नहा नरी नारे सुआ हो
कि तरी नरी नहा नरी ना…
तुलसी के बिरवा ल
चौंरा म लगा ले दीदी
मोंगरा लगा ले कुआँ पार मा….”
सुरहोती की रात राउतप्रमुख अपने कुलदेवता का स्मरण कर बाजे-गाजे के साथ ग्रामीण देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करने के लिए निकलता है। वह इस तरह दोहा पारता है-
“सदा भवानी दायिनी, सन्मुख गौरी गनेस।”
पाँच देव मिल रक्छा करें, ब्रम्हा बिस्नु महेस।”
सुरहोती रात को ही गाँव में गौरा-गौरी की स्थापना होती है। इस धार्मिक अनुष्ठान को गोंड़ जनजाति के लोग बड़े धूमधाम से मनाते हैं, जिसमें गाँव भर के लोग सहर्ष शामिल होते हैं। भगवान शंकर और देवी पार्वती ही गौरा-गौरी का प्रतीकात्मक रूप है। इस समय गौरागीत गाया जाता है –
“जोहर जोहर मोर ठाकुर देवता
सेवर लागौं मँय तोर
गौरा गौरी के मड़वा छवायों
दुलरू हंस के परेवना
जोहर जोहर… ”
गाँवों में गोवर्धनपूजा-
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गोवर्धन पूजा के दिन लोग सुबह से ही मवेशियों को नदी-तालाब ले जाकर नहलाते हैं। उनके माथे पर गुलाल-बंदन का टीका लगाते हैं। इस दिन माईलोगिन रँधनीकुरिया में व्यस्त होती हैं। घर-घर तेलहा रोटी बनती हैं। दस बजे तक राउताइन अपने-अपने ठाकुरों के घर जाकर माईकोठी, कोठा एवं तुलसीचौरा पर रंगीन भित्तिचित्र बनाती हैं। इसे “हाथा देना” कहा जाता है। फिर दोपहर तक गोबर, धान की नई बालियाँ, मेमरी व सिंगरौली के पौधे से गोवर्धन पर्वत बनाया जाता है। गोवर्धन पर्वत के साथ गोधन की भी पूजा होती है। इससे लोगों में आस्था, श्रद्धा-भक्ति व विश्वास जागृत होता है।
तत्पश्चात गरुवा (मवेशी) को खिचड़ी खिलाई जाती है। खिचड़ी नये चावल, उड़द दाल व कुम्हड़ा-कोचई की सब्जी से बनती है। इसमें तेलहा रोटी- बरा, सोंहारी मिलाई जाती है। गोवर्धन पूजा एक प्रकृति पूजा है। गो-धन की पूजा में गोधन का संवर्धन व संरक्षण निहित हैं।
इस दिन राऊतजाति के लोग नृत्य करते हुए अपने-अपने मालिकों के घर मवेशियों को सोहई बाँधने जाते हैं। सोहई पलास की जड़, लटकना के रेशे, मोर पंख व नई रंगीन चिंदियों से बनी होती है। ये बड़ी आकर्षक होती है। राऊतों की टोली दोहे पारते हुए चलती है।
“जात के मैं गहिरा संगी, बुधारू मोर नाँव।
तरिया के बर कदम अस, गोकुल कस मोर गाँव।”
साँझ होते ही साँहड़ा ठौर पर गाँव भर के लोग एकत्रित होते हैं। मेल-मिलाप होता है। राऊत प्रमुख नारियल तोड़ कर साँहड़ा देव की पूजा करते हुए दोहा पारता है-
“पूजा करे पुजेरी संगी, धोवा चाँऊर चढ़ाई।
पूजा होवत हे मोर गोबरधन के, सेत धजा फहराई।”
भाईदूज का मातरोत्सव-
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भाई और बहन के स्नेह का पर्व है भाईदूज। इससे सूर्य पुत्र यम व पुत्री यमुना का कथा प्रसंग जुड़ा हुआ है। हमारे गाँव-देहात में भाईदूज को मातरोत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस दिन सुबह से ही राऊत व ठेठवार जाति तथा गाँव भर के लोग मातर स्थल पर एकत्रित होते हैं। खेरखाडाँड़ या दैहान में एक वृत्ताकार साफ-सुथरी जगह पर मातरदेव को स्थापित किया जाता है। गाँव भर के मवेशियों को लाया जाता है। पूजा होती है। कुम्हड़ा ढुलाया जाता है। खीर-पूड़ी व कुम्हड़ा सब्जी का प्रसाद वितरण होता है। लोग बड़े प्रसन्न होते हैं। मातर का त्यौहार प्रेम, बंधुत्व, एकता व भाईचारे का संदेश देता है। इस दिन से ही हमारे ग्रामीण अंचल में मड़ई-मेला की शुरुआत होती है।
लेखक संपर्क-
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