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एक डाकिए की विदाई : दुनिया के तमाम डाकखाने प्रेम से चलते हैं और कचहरियां नफ़रत से : कोई हैरत की बात नहीं कि डाकखाने कम हो गए और कचहरि यां बढ़ती गई… -डॉ. सोनाली चक्रवर्ती
यह पंक्तियां मैने बहुत पहले पढ़ी थी और मन में बस गई थी। सच तो! आजकल हर किसी को डाकखानो की जरूरत कम होती है कोर्ट कचहरी की अधिक।
डाकखाना,डाकिया,चिट्ठियां शायद हमारी पीढ़ी की सबसे प्रिय चीजों में आती थी। डाक बाबू के साइकिल की घंटी मन में खुशी क्यों जगाती थी? मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि क्यों घर के सारे सदस्य बाहर की तरफ दौड़ आते थे?
सेक्टर-6 एलआईसी कॉलोनी में जहां हम रहते थे वह तो पूरा कॉलोनी ही एक छोटा सा घर था। हमारे घर के सामने डाकिए की साइकिल का रुकना मतलब आसपास से सुषमा दीदी, पप्पू का परिवार भी निकल आएगा, सुमन दीदी, बिल्लू भैया का भी और संध्या का भी और चिट्ठियां वहीं बालकनी में खड़े होकर पढ़नी पड़ती थी। बताना पड़ता था मेरे अशोक मामा की चिट्ठी है या संध्या के अशोक चाचा की।
पत्र बांग्ला में भी हो तो वहीं पढ़ कर सबको अनुवाद करके बताना पड़ता था कि हां! अशोक आने वाला है या बाबा की तबीयत खराब है या मौसी की शादी है।
घर का हर एक काम अपने हाथों से करने वाले यह कौन से लोग थे जिनके पास इतना समय था कि दूसरों की चिट्ठियों के सुख-दुख में भीग सके। दिन इतने बड़े क्यों थे जो बीतते ही नहीं थे? एक ही दिन में जाने कितनी घटनाएं होती थी जिस में डाकिए से बातचीत करना भी शामिल रहता था।
इसलिए डाकिए से यह सहज लगाव मेरा हमेशा बना रहा।
जब मैं प्रगति नगर में आई (आज से 17-18 साल पहले) तो हर जगह अपना पता बदलना पड़ा लेकिन सालों में हमारी एक भी चिट्ठी इधर से उधर नहीं हुई। जितनी भी जरूरी चिट्ठियां हो वह बराबर हम तक पहुंची और इसका पूरा श्रेय था हमारे क्षेत्र के डाक बाबू श्री परसराम देशमुख जी का।
कोई भी चिट्ठी वह बाहर से फेंक कर नहीं जाते बाकायदा अपनी साइकिल रोक के दरवाजा खटखटाते हुए अंदर आकर हाथ में देते। साथ में यह भी बताते कि-“मैं कल भी आया था आप लोग घर पर नहीं थे मुझे चिट्ठी को देखकर लगा यह जरूरी है इसलिए मैं यहां रखकर नहीं गया आज दोबारा आया कि आपके हाथ में दे सकूं”
वह कभी फोन करते कि आपका एक रजिस्टर्ड लेटर आया है। क्या मैं आपके इस पड़ोसी के घर में छोड़ दूं? क्या मैं उनसे आपकी बात करवा दूँ? मैने उनके घर में छोड़ रहा हूं यह सही तो है ना?
धीरे-धीरे उनकी प्रतिबद्धता मुझे मुग्ध करने लगी।
किसी संत की सी शांति रहती थी उनके चेहरे पर। अपने कार्य के प्रति न केवल प्रतिबद्ध बल्कि अपना काम करने में उन्हें बहुत ही मजा आता था।
माथे पर तिलक, चेहरे पर छत्तीसगढ़ के किसी किसान जैसी सरल मुस्कान, कम बोलने वाले व्यक्ति लेकिन पूरे क्षेत्र की एक हर चिट्ठी की जिम्मेदारी उनकी। हमारे घर की बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी खुशियों की खबर वही लेकर आते थे। मेरे पीएचडी के दौरान सारे ऑफिशियल लेटर से लेकर मेरी डिग्री मिलने की खबर तक वो लेकर आएं।
जिस दिन वह मेरे पीएचडी की डिग्री की चिट्ठी लेकर आए हमने उन्हें घर में बिठाकर उनका सत्कार किया, मुंह मीठा कराया तो उनके साथ कुछ और पारिवारिक रिश्ता जुड़ने लगा।
उसके बाद तो बेटे के पढ़ाई की सारी खबरें वही लेकर आते थे।
वह चीटियां भेजने वाले का पता देखकर समझते थे कि इस चिट्ठी को मुझे हाथ में ही देना है।
पिछले दिनों उन्होंने बातों बातों में बताया कि इस महीने मैं रिटायर हो जाऊंगा मैडम तो समय की भागती गति पर मन धक से हो उठा।
हमने अपने घर पर उनका एक छोटा सा विदाई समारोह आयोजित किया जिससे वह बेहद भावुक हो उठे। उसके बाद उन्होंने हमें अपने ऑफिशियल विदाई समारोह में भी आमंत्रित किया।
मुझे बहुत खुशी हुई जब हमने वहां जाकर देखा पूरे उनके विभाग के लोग थे, सिविक सेंटर के पोस्टमास्टर श्री मनोज कुमार सिन्हा जी और बहुत से पोस्टमैन भाई। कार्यक्रम का बेहतरीन संचालन किया शासकीय गणित के व्याख्याता उनके बचपन के मित्र देवी सिंह देशमुख सर ने।उन्होंने बताया कि परसराम जी न केवल अपने कार्य के प्रति गंभीर है बल्कि अपने गांव भी जब जाते हैं तो वहां हर छोटी बड़ी समस्या से उनका वास्ता होता है। चाहे वह पानी की समस्या हो या रास्ते की वह खुद उतर के काम करने लगते हैं। गांव में दो मंदिर भी उन्होंने बनवाए हैं वहां के लिए मूर्तियां भी समर्पित की है।
एक डाकिए का सामाजिक सरोकार सच में मन को खुशियों से भर रहा था।
लगने लगता है कि सच में डाकिए को ही लगता होगा कि हर किसी के घर में खुशियों वाली खबर आए जिसके जिम्मेदार वह हो।
उनके परिवार के लोगों के साथ केवल हम लोग थे जो उनके कार्य क्षेत्र से आते थे। यह उनसे ज्यादा हमारे लिए सम्मान की बात थी।
पोस्टमास्टर साहब ने उनके बारे में यादें साझा करते हुए बताया कि उन्होंने एक दिन ज्यादा काम के बाद उनको छुट्टी दी थी लेकिन वह आधे दिन में ही वापस आ गए थे उन्होंने कहा कि कुछ पत्र बहुत जरूरी है तो मुझे इनको देने जाना ही होगा सर लोग परेशान होंगे।
सर ने बताया कि मैने अपने पूरे कार्यकाल के दौरान ऐसा एक भी पोस्टमैन नहीं देखा जो छुट्टी देने के बावजूद आकर काम करना चाहे।
इस पूरे कार्यक्रम के दौरान परसराम देशमुख जी की केवल आंखें भीगती रही और वह शांति से बैठे रहे। उनके साथियों ने उन्हें फूल मालाओं, गुलाल के टीके, उपहारों और प्रेम से भर दिया। सभी के मन में उनसे बिछड़ने का दुख था इससे समझ में आ रहा था कि न केवल अपने कार्य बल्कि अपने व्यवहार और प्रेम से भी उन्होंने सबके दिल में अपनी जगह बनाई है।
आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी उस समय हुई जब उनके रिटायरमेंट के चार दिन बाद हमने फिर अपने गली में उनको देखा। उनका कहना था -“कुछ जरूरी चिट्टियां थी साहब मेरे रिटायर होने से क्या हुआ अपना काम तो पूरा करके ही जाऊंगा ना”
साइकिल वाले डाकिए को आने वाली पीढ़ी शायद देख भी नहीं पाए। हम उन खुशनसीब लोगों में से हैं जिनका साइकिल वाले पोस्टमैन से परिचय है।
इस डाकिये की विदाई सच में बड़ी कठिन है।
पता नहीं स्नेह के तार कब, किससे, कैसे जुड़ जाते है।
जब लोग पूछते हैं सोनाली जी आप बहुत बिजी रहती हैं दिन भर?
तो मेरा मन करता है उनसे कहूं कि इतना बड़ा परिवार भी तो है मेरा। व्यस्तता तो रहेगी ना।
मैं सबके साथ समय काटना चाहती हूं,हर किसी को समय देना चाहती हूं, उनका समय पाना चाहती हूं।
भारतीय डाक सेवा विभाग से आग्रह करूंगी कि परसराम देशमुख जैसे डाकियों की सेवाएं आगे भी ली जाए नई पीढ़ी के डाकियों को प्रशिक्षित करने में। उन्हें बताएं कि वह केवल चिट्टियां नहीं घरों तक प्रेम, रिश्तों की महक, खुशियां और विश्वास पहुंचाते हैं।
ईश्वर से प्रार्थना करती हूं कि दुनिया में डाकखाने बढ़ जाए और कचहरियां कम हो जाए।
हमें प्रेम पत्रों के जाने के लिए डाक खानों की जरूरत अधिक है।
• प्रस्तुति-
• डॉ. सोनाली चक्रवर्ती
०००