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लघुकथा : कविता कन्नौजे

• एक घर बनाऊँगी मुक्तिधाम के सामने
– कविता कन्नौजे
[ सहायक प्राध्यापक, आचार्य पंथ श्री गृंधमुनि नाम साहेब शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कवर्धा, जिला- कबीरधाम, छत्तीसगढ़ ]
भैया प्लीज मुझे लेफ्ट साइड वाला फ्लैट दे दीजिए ना कहते हुए कविता ने बिल्डिंग के ऑनर से रिक्वेस्ट किया। ऊपर तो खाली नहीं है मैडम बस पांच नंबर का फ्लैट खाली है, पांच नंबर भी तो अच्छा है, डबल बालकनी है और स्पेस भी थोड़ा ज्यादा है,ईस्ट फेसिंग है यह सब बात कहकर ऑनर जैसे उस फ्लैट की तारीफ कर रहे हों,(लहजे में कहा)। कविता ने आखिर कह दिया भैया उधर मुक्तिधाम है सीधे दरवाजा खोलो तो वही सामने दिखता है,मुझे डर लगेगा रात-वात में तो और ज्यादा (कविता ने अपने डर की भावना को स्पष्ट किया)। भैया ने हंसते हुए कहा क्या मैडम इससे क्या होता है ?आप भी इन चीजों को मानते हो मैडम ,चलो जो भी है आप सोच कर बता देना। फोन रखने के बाद कविता ने विचार किया घर तो चाहिए ही और यहां पर इस बिल्डिंग में तो सहेलियां भी हैं जैसा भी हो एडजस्ट कर लूंगी कौन सा मुझे रात में बालकनी में खड़े रहना है,मुक्तिधाम है तो अपनी जगह पर थोड़ा मन को समझाते हुए कविता ने पांच नंबर के फ्लैट में रहने की रजामंदी करते हुए बिल्डिंग ऑनर को बता दिया कि , ठीक है भैया थोड़ी साफ सफाई करवा दीजिए मैं कल ही शिफ्ट हो जाऊंगी। दूसरे दिन कविता फ्लैट में शिफ्ट हो गई।
दिन भर तो घर को व्यवस्थित करने में निकल गया शाम होते ही कविता को मुक्तिधाम वाला डर सताने लगा उसने शाम के छः बजे से ही बालकनी की तरफ के दरवाजे खिड़कियां अंदर से कसकर बंद कर दिया (जैसे भूत प्रेत दरवाजे खिड़कियों से ही आते हों)। जब खाना बनाने के लिए कीचन में गई तो कीचन की खिड़की से भी मुक्तिधाम सीधे-सीधे दिख रहा था वहां पर बने मठ जिसमें सफेद रंग की पुताई हुई थी साफ-साफ नजर आ रहा था। कविता ने थोड़ा सहमकर तुरंत कीचन की खिड़की बंद की। रात में खाना-वाना खाकर सोने के समय मन में डर था,ईश्वर का नाम लेकर सो गई , थकावट के कारण नींद तो भरपूर आई और सीधे सुबह उठी। सुबह उठकर अपनी दैनिक क्रियाओं के साथ ड्यूटी पर जाने की तैयारी करने लगी। कपड़े सुखाने बालकनी गई तो देखा मुक्तिधाम में भीड़ लगी हुई है समझने में टाइम नहीं लगा कि किसी के अंतिम संस्कार के लिए लोग आए हैं घर और मुक्ति धाम की दूरी एकदम पास तो नहीं पर बहुत दूर भी न थी बातें स्पष्ट सुनाई तो नहीं देते थे पर कोलाहल एवम् रोने की आवाजें पता चलती थी। कविता ने मन में सोचा जब यहां पर रह रही हूं तो यह सब तो होना ही है अपने आप को तैयार कर और मन से डर हटा दिन भर के लिए ड्यूटी चली गई ,शाम को आने के बाद बालकनी से देखा तो बुझती हुई राख के धुएं हल्की-हल्की सी दिखाई दे रही थी मन में फिर डर….आज ही हुआ है यह, पता नहीं रात में कैसे सो पाऊंगी..? इस तरह दो-चार दिन के बाद ऐसे ही दृश्य मुक्ति धाम में देखने को मिलते कभी सुबह ,कभी दोपहर, कभी शाम अब तो समय का भी कोई ध्यान नहीं रहा धीरे-धीरे सब देखने की आदत हो गई। अब कविता हर सुबह मुक्ति धाम की ओर देखती,वहां के दृश्य में मठों के साथ साथ कुछ पेड़ पौधे, घास फूस सब थे लेकिन उसको सबसे अच्छा लगता तो वहां पर झाड़ीनुमा पौधों में खिले बैंगनी गुलाबी रंग के फूल जिसे वहां की लोकल भाषा में बेशरम का फूल कहा जाता था। बेशरम के पौधे के बारे में एक कहावत है कि इसको जहां फेंक दो उग जाता है कविता ने देखा कि यहां तो इतने सारे बेशरम के पौधे हैं और हर पौधे फूलों से लदे हुए हैं ये फूल अपनी खूबसूरती से मन मोह लेते थे। कविता को गार्डनिंग का शौंक था। वह अपने बालकनी में कुछ गमलों में पौधे लगाई थी पौधों में अच्छी तरह फूल नहीं लगने पर वह सोचती कि इनका इतना ध्यान रखने ,खाद पानी देने पर भी ठीक तरह से फूल नहीं खिलते ,एक तरफ ये बेशरम के पौधे हैं , इनको कोई खाद पानी नहीं देता, कोई ध्यान भी नहीं रखता फिर भी कितने सुंदर फूल खिलते हैं। अब रोज सुबह जैसे बालकनी में जाकर पूर्व से निकलते हुए सूरज को देखकर नमस्कार करना,कभी मुक्तिधाम में लोगों की भीड़ को देखना,कभी जलती उठते धुएं और बेशरम के फूलों को देखने की आदत सी हो गई थी। एक एक मठ को देखकर सोचती कि कितना सुंदर जीवन बिताया होगा इस पवित्र आत्मा ने ,शरीर से आत्मा छोड़ देने के बाद यहां आकर जला दिया गया, दफना दिया गया, मठ बनाकर सफेद रंग की पुताई कर दी गई। जीवन कितना रंगीन रहा होगा और मृत्यु में इतना सादापन? भाग दौड़ भरी जिंदगी से मुक्ति पाकर लोग मुक्तिधाम में आकर ही शांति पाते हैं। जिंदगी भर लोग अपनों के लिए जीते हैं धन संपत्ति भौतिक चीजों के लिए ना जाने क्या-क्या मशक्कत करते हैं पर शरीर से आत्मा छूट जाने पर ला दिए जाते हैं, पटक दिए जाते हैं, अस्तित्वहीन कर दिए जाते हैं बिल्कुल बेशरम के पौधे की तरह इधर-उधर, तीतर बितर कहीं भी.. ! पर बेशरम के इन पौधों के सुंदर फूलों की शोभा कविता को नई ताजगी देती रहती,जैसे कह रही हो कि कभी भी अपना अस्तित्व खोने न दो,खिल जाओ,जगमगा उठो। अब तो मुक्तिधाम के सफेद मठ भी कविता को जीवन की सच्चाई का बोध कराते उनके सफेद रंगों से भी सत्यता का बोध होता था कि यही जीवन है,अब मुक्तिधाम के मठों और वहां के बेशरम के फूलों से कविता को जैसे मोह सा हो गया था एक अप्रतिम लगाव और कविता ने एक गहरी लंबी सांस इन खयालों के साथ कि,पता नहीं अपना घर कब बनाऊंगी ? हां पर,एक घर बनाऊंगी मुक्तिधाम के सामने……..
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chhattisgarhaaspaas
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