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विशेष : माइक्रो फ़ाइनेंस संस्थानों के मकड़जाल में फंसी महिलाएं – आलेख, मरियम ढवले : अनुवाद, संजय पराते

1 day ago
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बिहार में दादा-दादी ने अपनी पोती की शादी के खर्च के लिए माइक्रो फाइनेंस संस्थान (एमएफआई) से ऋण लिया था। वे इसे चुकाने में असमर्थ थे। वे ट्रेन के आगे कूद गए और आत्महत्या कर ली। महाराष्ट्र में एक मां ने अपनी 6 वर्षीय बेटी से कहा कि उसे ट्रंक में बंद कर दे और एमएफआई एजेंट के चले जाने के बाद ही उसे बाहर निकालें। बच्ची खेलने के लिए बाहर गई और ट्रंक खोलना भूल गई। दम घुटने से मां की मौत हो गई। हरियाणा में एक पति ने एमएफआई एजेंट से कहा कि वह किश्त के बदले में उसकी पत्नी को ले जाए, क्योंकि वे इसे चुका नहीं सकते। आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में महिलाओं को अपना माइक्रो फाइनेंस ऋण चुकाने के लिए वेश्यावृत्ति में धकेला गया। असम में एक महिला को एमएफआई ने आलीशान जीवन के सपने दिखाकर रंगीन टेलीविजन खरीदने के लिए ऋण लेने के लिए फंसाया। ऋण चुकाने में असमर्थ होने के कारण उसने आत्महत्या कर ली।

ओडिशा में आदिवासी लोग एमएफआई ऋण को ‘बहू बंधक लोन’ कहते हैं। ओडिशा की एक बहू ने लोन लिया और उसे घर छोड़कर छिपना पड़ा। जैसे लोन न चुका पाने पर संपत्ति चली जाती है, वैसे ही बहू नामक संपत्ति चली जाती है। वह रात के अंधेरे में ही अपने बच्चों से मिलने घर आती है। तेलंगाना में एक महिला दर्जी पर पांच माइक्रो फाइनेंस संस्थानों का ऋण बकाया था। एक रात जब वह देर तक काम कर रही थी, तो एमएफआई एजेंट किस्त वसूलने के लिए उसके घर में घुस गया और रात 11 बजे तक इंतजार करता रहा। अगली सुबह वह फांसी पर लटकी मिली। उत्तर प्रदेश की राजकुमारी (बदला हुआ नाम) ने कहा, ‘वे रात 12 बजे आए और कहा कि अगर तुम पैसे नहीं लौटा सकती, तो अपनी बेटी हमें दे दो।’ कर्नाटक की मुमताज (बदला हुआ नाम) ने डर के मारे बताया कि अगर वह ऋण नहीं चुकाती, तो उसकी बेटी को बंधक बनाकर रखा जाएगा। देश के कई गांवों की महिलाएं एमएफआई एजेंटों के उत्पीड़न और अपमान से बचने के लिए अपने घर से भाग गई हैं। कितना आर्थिक शोषण और शारीरिक दुर्व्यवहार हो रहा है, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।

हाल ही में अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (एआईडीडब्ल्यूए) द्वारा 21 राज्यों के लगभग 100 जिलों में ऋणग्रस्तता पर किए गए व्यापक सर्वेक्षण में ये और अनगिनत अन्य भयावह विवरण सामने आए हैं। सर्वेक्षण में शामिल 9,000 महिलाएं खेतिहर मज़दूर, मनरेगा मज़दूर, गरीब किसान, घरेलू मज़दूर, प्रवासी मज़दूर, योजना मज़दूर, मछुआरा महिलाएं, एससी/एसटी, अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी और ‘खरीदी गई’ पत्नियों की श्रेणी से थीं।

2020-21 में जमस ने देखा कि महिलाएं अपने बढ़ते कर्ज के कारण परेशान थीं। वे बढ़ते कर्ज के बोझ तले दबती जा रही थीं। कोविड महामारी और हाशिए पर पड़े वर्गों के परिवारों को राहत पहुंचाने में भाजपा-आरएसएस सरकार की विनाशकारी विफलता ने गरीब महिलाओं को माइक्रो फाइनेंस संस्थानों के चंगुल में धकेल दिया।

महिलाओं को फंसाने वाली एमएफआई

एमएफआई के कर्मचारी महिलाओं को लुभाने और उनका शोषण करने के तरीके खोजने में माहिर हैं। महिलाएं इन गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) से ये ‘आसान, बंधक मुक्त’ उपभोग ऋण लेती हैं, क्योंकि उन्हें बहुत सारे दस्तावेजों की आवश्यकता नहीं होती है और वे उनके निवास स्थान पर ऋण प्रदान करते हैं। वे महिलाओं को यह नहीं बताते कि वे कितना ब्याज ले रहे हैं। इसके बजाय, वे पूछते हैं, “आप कितनी किस्तों में चुकाएंगी?” इस पर मोलभाव करने के बाद, प्रत्येक किस्त में भुगतान की जाने वाली संख्या और राशि तय की जाती है। यह राशि पूरी चुकौती अवधि के दौरान समान रहती है।

महिलाएं अपनी बुनियादी ज़रूरतों जैसे बीमारी, भोजन, घर की मरम्मत, बच्चों की शिक्षा, शादी आदि को पूरा करने के लिए ये ऋण लेती हैं। महिलाओं ने अपने पतियों का ऋण चुकाने के लिए भी ऋण लिया है। किसान परिवार की महिला को खेती या ट्रैक्टर खरीदने के लिए पैसे उधार लेने पड़ते हैं। जब पुरुष खेती से ऋण चुकाने में असमर्थ होते हैं, तो महिलाएं कम मजदूरी वाले रोजगार में लग जाती हैं और ऋण चुकाने के लिए अपने काम करने के घंटे बढ़ा देती हैं। ज़्यादातर गरीब महिलाएं ही एमएफआई से ऋण लेती हैं। उनके पास न तो ज़मीन है और न ही पानी की सुविधा है और कुछ के पास तो राशन कार्ड भी नहीं है। सर्वेक्षण में शामिल ज़्यादातर महिला परिवारों को पीएम आवास योजना, आयुष्मान भारत जैसी किसी भी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिला है।

महिलाएं खुद पर कुछ भी खर्च नहीं करती हैं, जैसे नई साड़ी खरीदना। वे परिवार की जरूरतों के लिए ये ऋण लेती हैं, लेकिन उन्हें चुका नहीं पाती हैं। एमएफआई महिला का राशन कार्ड, पैन कार्ड, आधार कार्ड की कॉपी लेती है और उसका सिबिल स्कोर चेक करती है। कई बार एजेंट ओरिजनल कार्ड अपने पास रख लेते हैं।

इन महिलाओं को नियमित काम भी नहीं मिलता और उनके पास ऋण वापस करने के लिए आय भी नहीं होती। मशीनीकरण के कारण कृषि मजदूरों के लिए काम खत्म हो गया है, इन मजदूरों में से अधिकांश महिलाएं हैं। मनरेगा के तहत 15 दिनों से भी कम रोजगार उपलब्ध होता है। उनमें से कई के पास मनरेगा या अन्य कार्ड भी नहीं हैं। उनमें से कुछ ने 3-4 ऋण लिए हैं, जबकि अन्य ने 10 तक ऋण लिए हैं। मासिक किस्त 40,000 रुपये प्रति माह तक जाती है। उनकी बहुत कम आय को देखते हुए, उनके लिए हर महीने इतनी अधिक रकम का भुगतान करना असंभव है। तब वे पिछली किस्त का भुगतान करने के लिए फिर से किसी अन्य एमएफआई से संपर्क करती हैं। 50,000 रुपये के ऋण के लिए, महिलाओं को 45,000 रुपये मिलते हैं, जबकि 5,000 रुपये एजेंट काट लेता है। इस ऋण के बदले उन्हें 80,000 रुपये तक वापस करना पड़ता है। एक बार जब वे कर्ज के जाल में फंस जाती हैं, तो उनके पास बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं होता। यह दुष्चक्र तब तक चलता रहता है, जब तक कि महिला इसे और सहन नहीं कर पाती।

प्रत्येक एमएफआई में महिलाओं को अपनी मासिक किस्तें चुकाने की अलग-अलग तिथियां होती हैं। शुरुआत में ऋण देते समय, बीमा के लिए राशि काट ली जाती है, भले ही महिलाएँ चाहें या नहीं। साथ ही, महिलाओं को बल्ब जैसी वस्तुएं 1,000 रुपये में खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है।

किश्त चुकाने के समय एमएफआई के वसूलीकर्ता किसी महिला के घर के बाहर तब तक बैठे रहते हैं, जब तक कि वह किश्त नहीं चुका देती। वे उनकी तलाशी भी लेते हैं, उनका पीछा भी करते हैं और उन्हें परेशान भी करते हैं। वसूलीकर्ता मुस्कराते हुए उनसे कहते हैं कि “मरना है तो मरो, लेकिन लोन चुका के मरो।” वे महिलाओं और बेटियों के लिए गंदी भाषा का इस्तेमाल करते हैं। कुछ जगहों पर अगर भुगतान के समय महिलाएँ एक घंटे भी देर से आती हैं, तो राशि दोगुनी कर दी जाती है। कई बार एजेंट उनके घर का कुछ सामान जैसे टीवी, बर्तन आदि भी ले जाते हैं।

गरीबी से उपजी हताशा ऐसी है कि महिलाएं इन एमएफआई से कुछ ऋण मिलने पर खुद को भाग्यशाली मानती हैं। जब उनसे पूछा जाता है कि वे ऐसे लालची एमएफआई से ऋण क्यों लेती हैं, तो महिलाएं कहती हैं, “क्या आप हमें पैसे देंगे? हमारे पास क्या विकल्प है? बैंक हमसे कागज, पहचान पत्र और अन्य दस्तावेज मांगते हैं। बैंक हमें ऋण नहीं देते हैं।” उनका जीवन इन उपभोग ऋणों पर निर्भर करता है। ऋणदाता घर-घर जाकर ऋण देते हैं, जिसका भुगतान साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक आधार पर किया जा सकता है। एक ऋण वापस करने के लिए, उन्होंने 5 ऋण तक लिए हैं। कुछ जगहों पर वे इस व्यवस्था में फंस जाने के लिए कोसते हैं।

खास बात यह है कि केरल से किसी तरह के उत्पीड़न की खबर नहीं आई। महिलाओं ने विवाह के लिए सहकारी समितियों और राष्ट्रीयकृत बैंकों से ऋण लिया है। कुडुम्बश्री और अन्य संस्थाओं की मौजूदगी उन्हें विकल्प प्रदान करती है।

माइक्रो क्रेडिट – कॉरपोरेट्स के लिए मुनाफा कमाने का नया तरीका

1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद देश के ग्रामीण इलाकों में बैंकों की कई शाखाएं खोली गईं। किसान, दलित, आदिवासी, हाशिए पर पड़े तबके के लोग प्राथमिकता वाले ऋण का लाभ उठा सकते थे और इससे उन्हें खून चूसने वाले निजी साहूकारों के जाल से बाहर निकलने में मदद मिली। 1990 के दशक में उदारीकरण के दौर में पूरी ऋण नीति कॉरपोरेट्स के पक्ष में और मेहनतकश लोगों के खिलाफ थी। विदेशी बैंकों को भारत में अपनी शाखाएं खोलने की अनुमति इस तर्क के साथ दी गई कि इससे प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिलेगा। प्रतिस्पर्धा का मतलब है मुनाफा कमाना। नतीजतन, ग्रामीण क्षेत्र और गरीबों को मिलने वाले ऋण कम हो गए और इससे कॉरपोरेट क्षेत्र को बहुत फायदा हुआ। बैंकों के निजीकरण और ग्रामीण शाखाओं में कमी को बढ़ावा दिया गया। कॉरपोरेट्स को कृषि ऋण भी मिलने लगे। बैंकों ने ग्रामीण और शहरी गरीबों को प्राथमिकता वाले ऋण देने से हाथ खींच लिया। ग्रामीण इलाकों में लोगों को पैसे की जरूरत पड़ने पर फिर से साहूकारों और सूदखोरों के पास जाने के लिए मजबूर होना पड़ा।

माइक्रो क्रेडिट की अवधारणा 1990 के दशक के आखिर में जन्मी। देश में दो तरह के माइक्रो क्रेडिट सिस्टम शुरू हुए। एक, स्वयं सहायता समूह (एसएचजी)-बैंक लिंकेज प्रोग्राम। दूसरा, मुनाफे को भांपते हुए निजी एमएफआई गरीबों पर गिद्ध की तरह टूट पड़े। अमीरों ने एमएफआई में निवेश करना शुरू कर दिया, जिसने इस पैसे को महिलाओं को ऊंची ब्याज दरों पर उधार दिया। इन निवेशों पर मिलने वाला रिटर्न दोगुना से भी ज्यादा हो गया, जिससे अमीरों की संपत्ति बढ़ गई। गरीब महिलाओं की मेहनत और पसीना अमीर निवेशकों के लिए मुनाफे में बदल गया। उदाहरण के लिए, नारायण मूर्ति की कंपनी कैटामारन ने कर्नाटक में एसकेएस नामक एमएफआई में 30 करोड़ रुपये का निवेश किया और 6 महीने में 60 करोड़ रुपये का मुनाफा कमाया। एमएफआई गरीबों को कर्ज देने और उनसे सुपर-मुनाफा कमाने का मॉडल बन गया।

अधिकतम लाभ कमाना ही लक्ष्य बन गया। एमएफआई में निवेशकों को अधिक रिटर्न मिलना गरीब महिलाओं की लूट को उचित ठहराता है। माइक्रो क्रेडिट कॉरपोरेट्स द्वारा शोषण का साधन बन गया है। पहले ब्याज दर 26 प्रतिशत पर सीमित थी। एमएफआई ने इसका विरोध किया। इसलिए, ब्याज दर पर सीमा हटा दी गई। प्राथमिकता वाले ऋण क्षेत्र को निचोड़ा गया और कॉरपोरेट्स को ऋण माफ करने और करों में कमी के रूप में लाभ दिया गया। एमएफआई में माइक्रो क्रेडिट कॉरपोरेट निवेशकों को छप्परफाड़ मुनाफा देता है।

आरएसएस ने 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का विरोध किया था। और अब सत्ता में होने के कारण, भाजपा-आरएसएस बैंकों के निजीकरण के अपने एजेंडे को आगे बढ़ा रही है। इससे देश के गरीब परिवारों पर, खासकर ग्रामीण इलाकों में एमएफआई का शिकंजा और मजबूत होगा। सरकार इस निराशाजनक स्थिति के मूल कारण बेरोजगारी को संबोधित करने से इंकार करती है। आजीविका के अवसरों का सृजन समय की मांग है।

महिलाएं चाहती हैं कि एमएफआई बंद हो जाएं और सरकारी बैंक कम ब्याज पर लोन दें। जनवादी महिला समिति के हस्तक्षेप के कारण, अधिकारियों को पश्चिम बंगाल के कुछ जिलों में ब्याज दरों को कम करने के लिए मजबूर होना पड़ा। तमिलनाडु ने महिलाओं के उत्पीड़न के मामलों को आरबीआई लोकपाल के समक्ष उठाया और एमएफआई के विनियमन का निर्देश देने वाला आदेश प्राप्त किया। क्षेत्रीय रैलियां आयोजित की गई हैं। महाराष्ट्र में उत्पीड़न के मामलों में तहसीलदारों को हस्तक्षेप करना पड़ा। कर्नाटक, बिहार और अन्य राज्यों में विरोध प्रदर्शन हुए हैं।

जनवादी महिला समिति अगले कुछ महीनों में राजधानी दिल्ली में एक राष्ट्रीय जन सुनवाई आयोजित करेगी, जिसमें महिलाओं के सबसे गरीब तबके के शोषण और लूट के इस नए नेटवर्क का पूरी तरह से पर्दाफाश किया जाएगा। जमस द्वारा महिलाओं की ऋणग्रस्तता पर किए गए राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण की रिपोर्ट वहां जारी की जाएगी। यह जन सुनवाई भारत में महिलाओं के सामने आने वाले इस महत्वपूर्ण और ज्वलंत मुद्दे पर एक राष्ट्रव्यापी अभियान और जन संघर्ष का आह्वान भी करेगी।

[ • लेखिका मरियम ढवले ‘ जनवादी महिला समिति’ की राष्ट्रीय महासचिव हैं. • अनुवादक संजय पराते ‘अखिल भारतीय किसान सभा’ से संबद्ध ‘ छत्तीसगढ़ किसान सभा’ के उपाध्यक्ष हैं. ]

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