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कृति और कृतिकार : कृति ‘फिर भी चलना होगा’ और कृतिकार प्रकाशचंद्र मण्डल
कवि प्रकाशचंद्र मण्डल ने हिंदी और बांग्ला में हज़ारों-हजार कविताएँ लिखी है. हिंदी में इनकी 2 काव्य संग्रह प्रकाशित हुई है. पहली संग्रह 2021 में ‘शब्दों की खोज में’ और हाल ही में छपी काव्य संग्रह है ‘फिर भी चलना होगा’.
पिछले दिनों ‘फिर भी चलना होगा’ का विमोचन भिलाई इस्पात संयंत्र ऑफिसर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष एवं ‘सेफी’ के चेयरमैन नरेंद्र कुमार बंछोर,साहित्यिक चिंतक, लेखक व समाजसेवी कैलाश बरमेचा जैन के करकमलों से संपन्न हुआ. सौभाग्य से ‘छत्तीसगढ़ आसपास’ ग्रुप से मैं और ‘शेफाली मीडिया पब्लिककेशन ग्रुप’ की प्रमुख एवं ‘छत्तीसगढ़ आसपास’ की प्रधान संपादक श्रीमती शेफाली भट्टाचार्य भी शामिल हुए.साथ में कृतिकार की धर्मपत्नी श्रीमती सुमिता मण्डल और उनके पुत्र अनुभव मण्डल भी उपस्थित थे.
[बाएँ से] कैलाश बरमेचा जैन, प्रदीप भट्टाचार्य, प्रकाशचंद्र मण्डल, श्रीमती शेफाली भट्टाचार्य और श्रीमती सुमीता मण्डल
‘फिर भी चलना होगा’ कृति की प्रति भाई प्रकाशचंद्र मण्डल ने मुझे और शेफाली को ससम्मान अपने निवास में आमंत्रित कर भेंट किया.
[उपर बाएँ से] श्रीमती सुमीता मण्डल, श्रीमती शेफाली भट्टाचार्य और प्रदीप भट्टाचार्य
[नीचे बाएँ से] प्रकाशचंद्र मण्डल, प्रदीप भट्टाचार्य और श्रीमती शेफाली भट्टाचार्य
मैंने संग्रह को पूरी तनम्यता से पढ़ा. ‘फिर भी चलना होगा’ संग्रह में कुल-64 कविताएं है. शीर्षक है- मेरी मां की महिमा/फिर भी चलना होगा/जिंदी गुड़िया/मां तुम कितनी अच्छी हो/मन गाना चाहता है/तुम्हारा और मेरा वसंत/स्मृति/खेवईया/इस घर से उस घर में/दाग़/मां चामुंडेश्वरी/जल जमीन जंगल/डरावनी सुबह/ममतामयी मां/जागो मेरी बेटियों जागो/सागर किनारे/नारी/मिट्टी खोदकर शब्दों की खोज करता हूँ/जीवन की कुछ बातें मुझे आवाज देती है/अयोद्ध्या नगरी/साँझ ढल गयी/कोहरा/खुशी का स्पर्श/सोचा था/कलम और नहीं चलता/चलो यहां से कहीं दूर चले/निर्जीव/हिंदी सरताज हमारे/फिर वापस आना होगा/मन मस्त मगन हो जाए/मेरे दिल के करीब हो/दिल खोल कर हंसो/पितृ वाक्य/मैं फिर वापस आऊंगा/कवि/यह होली है मनमौजी/भ्रमर/चंचल चित्त/क्या मिला सोचो मत/झूमता वसंत/प्रभाती भ्रमण/आशा/समर्पण/तिलोत्तमा/उन्हें जीने दो/एक मित्र/बर्बरता/बुलावा आया है/मृगतृष्णा/जीवन एक पहेली/कामनाएं अनंत है/इंद्रधनुष/भारत महान/मर्जी का मालिक/अभागिन युवती/बलात्कार/सपना भी सच होता है/काल बैशाखी/डरना नहीं विपतियों से/वह तुम नहीं हो/सीमा/सब कुछ शून्य है/हिंसा और लड़ना मुझको आता है.
1962 को जन्में प्रकाशचंद्र मण्डल ने पहली कविता 1977 में लिखी थी. पिताश्री स्व. बाबु राम मण्डल, माताश्री रुकमणि देवी मण्डल और पत्नी सुमीता मण्डल की प्रेरणा से निरंतर काव्य लेखन में सक्रिय हैं. प्रकाश भाई,संकलन प्रकाशन सहयोग में पुत्र अनुभव और पुत्री प्रियंका की भूमिका को भी अहम मानते हैं. प्रकाशचंद्र मण्डल की अब तक बांग्ला और हिंदी में 6 काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी है. बांग्ला काव्य संग्रह है- 1. तुमी एले ताई 2. एक फाली रोद्दुर 3. आमाके उन्मुक्त करो 4. कखोन जे कोन कोथा कविता होए जाए. हिंदी में 1. शब्दों की खोज में और 2. फिर भी चलना होगा. प्रकाशचंद्र मण्डल ने 36 नाटकों में अभिनय एवं निर्देशन भी किया है. अनेक नाटक भी लिखे हैं. सतत् लेखन के लिए अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित हुए प्रकाशचंद्र मण्डल बहुउद्देश्यीय लेखन के धनी हैं. देश के अलावा बांग्ला देश में भी साहित्यिक योगदान के लिए सम्मान प्राप्त कर चुके हैं. विशेष सम्मान बांग्लादेश का ‘साहित्येर पाखी सम्मान’.
मैंने संग्रह से कुछ रचनाएँ पसंद की-प्रदीप भट्टाचार्य, संपादक ‘छत्तीसगढ़ आसपास’
•फिर भी चलना होगा
लम्बे कद वाला एक वृद्ध/रास्ते में चलता हुआ/देखा जा सकता है/लंबाई और उम्रदराज़ के कारण/कमर से झुका हुआ/प्रतिदिन वह ऐसे ही चलता है/कभी ठोकर खाकर गिर पड़ता है/कभी थककर बैठ जाता है/जीवनभर का दायित्वों का बोझ/उठाते-उठाते थक सा गया है/कमबख्त़ भूख को भी/साथ लिए चलता है/वह उम्रदराज़ वृद्ध/चलता रहता है निरंतर/ढलती उम्र में हर एक/शिराएँ जाग उठी है/चेहरे का चमड़ा झुलस सा गया है/चमकती आँखों का मणी भी/किसी कटोरे में समा गया है/रीढ़ की हड्डी झुक गयी है/धनुष की तरह/फिर भी उसे चलना होगा निरंतर/कर्तव्यों का बोझ ढोते-ढोते/सिलसिला कब रुकेगा/पता नहीं! फिर भी उसे चलना होगा/चलते ही रहना होगा.
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•माँ तुम कितनी अच्छी हो
माँ तुम कितनी अच्छी हो/मेरे लिए ईश्वर से भी ऊँची हो/तुमने जीवन दिया/आसमान से भी प्यार दिया/तुम समर्पित हो/अपने बच्चों के लिए/जिससे वह बहुत बड़ा बन जाए/अपना सिर ऊंचा कर सके/इतना ऊंचा की वह चांद तारों को/स्पर्श कर सके/तुम आशीष देती हो/अपनी संतान को/वह हिमालय की ऊँचाई को भी/पार कर सके/किंतु यह विडम्बना है/कुछ इनमें से बहुत बड़े होते हैं/इतने बड़े हो जाते हैं कि/जीवन की तमाम उपलब्धियों को/प्राप्त कर लेते हैं/फिर मां उसके घुटनों के नीचे/खड़ी होकर/अपने संतान की ऊँचाई को देखने का/प्रयास करते हुए/अपनी ही गर्दन को/ऊंचा करके देखती है/फिर भी मां अपनी संतान को/गर्व से आनंदित होकर/अपलक देखती रहती है/तात्पर्य यह है कि/प्राय:संतान यह/भूल जाते हैं/कि उन्होंने भी अपनी मां के/गर्भ से जन्म लिया है.
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•जागो मेरी बेटियों जागो
जागो उठो जागो उठो/चुप क्यों हो तुम/जाग जाओ मेरे देश की बेटियों/क्यों धरे हो मौन/चारों ओर है अंधियारा देखो/घनघोर बादल छाया देखो/तुम पर पढ़ते बाज देखो/तार-तार होती इंसानियत देखो/मानवता हुई शर्मसार देखो/कब तक रहोगे तुम धरे मौन/इन दरिंदों से तुम्हें बचाएगा कौन? हर कदम पर घूमते दरिंदे/भेड़ियों के वेश में छिपे है गुंडे/हवस मिटाने चीर हरते/कोई नहीं है इन्हें रोकते/अपनी ढाल अब तुम बनो/बनकर लक्ष्मीबाई तलवार तानों/काट डालो इन वहशियों को/कर डालो इन्हें पौरुषहीन, दौड़ा- दौड़ा कर इन हैवानों को/ कुरुशिये पर इनको टांगों/जागो- जागो मेरे देश की बेटियों/क्यों धरे हो तुम मौन/तुम ही खुद को बचाओ बेटियों/वरना तुम्हें बचाएगा कौन?
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• काव्य संग्रह प्राप्ति के लिए कवि प्रकाशचंद्र मण्डल से संपर्क-94255 75471
• समीक्षा- प्रदीप भट्टाचार्य
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