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महिमा महाशिवरात्रि की
■डॉ. नलिनी श्रीवास्तव
छत्तीसगढ़ राज्य का बनना कोई चमत्कारी घटना नहीं है। इसकी चर्चा तो मध्यप्रदेश बनाए जाने के समय सन् 1956 से ही हो रही थी। विधान सभा में इसकी गूंज अनवरत होती रही। अंततः छत्तीसगढ़ राज्य की स्वीकृति मिल ही गई। 1नवम्बर 2000 को छत्तीसगढ़ राज्य का जन्म हुआ।
छत्तीसगढ़ राज्य बनने से यहांॅ छत्तीसगढ़ के वासियों का आत्मविश्वास में निश्चित ही विशेष परिवर्तन होने लगा है। छत्तीसगढ़ की लोक-संस्कृति की जड़ें काफी गहरी हैं। जिसकी सुरभि ने विश्व को सुरभित किया है।
छत्तीसगढ़ अंचल की प्राकृतिक सौदर्य सुषमा दर्शनीय ही नहीं है, यहाँ के कण-कण में छिपी हुई कितनी ही किवदंतियांॅ समाई हुई है। छत्तीसगढ़ में एक से एक मंदिरों के अवशेष अपने कलाकृतियों के शिल्प सौंदर्य से इतिहास की सजीव कहानी कहती नज़र आती है। दक्षिण कौशल की राजधानी श्रीपुर जो वर्तमान में सिरपुर कौशल्या का मायका, बालार्जुन का इतिहास अपने आप में विषेश है। सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर आज भी लोगों को विस्मित करने के लिए पर्याप्त है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 20 किलोमीटर दूरी पर स्थित भिलाई के रास्ते में देवबलोदा में प्राचीन शिव मंदिर है। यह दसवीं-ग्यारवीं के सदी के शिल्प कला को अपने में समेटे हुए अत्यन्त मनोहारी है। जिस शिव-लिंग में आज भी भक्त-गण अपनी मनोवांछित कामनाओं को लिए हुए ताँबे के नाग श्रद्धा और निष्ठा से अर्पित करते हैं और प्रफुल्लित होकर अपने घर जाते हैं।
इतिहास गवाह है सभी प्रमुख संस्कृतियों का जन्म नदियों के कोख से हुआ है। संस्कृति और जन-मानस का अपूर्व और घनिष्ट संबंध है। हर नदी के किनारे मंदिरों का होना भी हमारे धर्म के अस्तित्व का परिचय सृष्टि के आदि काल से देखा जा रहा है। करोड़ों देवी-देवताओं में राम, कृष्ण और शिव हमारे राष्ट्रीय एकीकरण के पर्याय बन चुके हैं।
भारत के किसी कोने में कोई भी व्यक्ति राम, कृष्ण और शिव की ईश्वरीय शक्ति से अपरिचित नहीं है। एक ओर राम मर्यादा पुरूषोत्तम हैं तो दूसरी ओर श्री कृष्ण संघर्ष को झेलते हुए अपूर्व मुस्कान से प्रफुल्लित नज़र आते हैं। वहीं कल्यााणकारी शिव सहज, सरलता के साथ भक्तों की कामनाओं को पूर्ण करने में सदैव तत्पर रहते हैं।
भारतीय संस्कृति के वेदों में अंोंकार मंत्र की महत्ता अपने आप में असाधारण है। ओंकार मंत्र को त्रिदेव (ब्रह्या, विष्णु और महेश) का आव्हान मंत्र माना गया है। इसीलिए ओंकार मंत्र को आदि काल से लेकर आधुनिक परिवेश में जन-मानस का कण्ठ-हार बन गया है।
देवों में महादेव, नदियों में गंगा नदी, पर्वतों में हिमालय पर्वत, इसी प्रकार ग्रह-नक्षत्रों व राशि व दिन में सर्वाधिक महत्व सोमवार को दिया जाता है। रात्रि शुभ-रात्रि और काल-रात्रि की तुलना में महाशिवरात्रि उत्सव मनाने का एक विशेष कारण है क्योंकि इसी दिन शिव-पार्वती का परिणय उत्सव भी है। महाशिवरात्रि के दिन शिव-भक्त निर्जला व्रत रखकर पूजा अर्चना करते हैं। बेल-पत्र, धतूरे और आँख का फूल, चाँवल के दाने, चने के दाल, दूध और दही से पूजा की जाती है। शिव की स्तुति यदि प्रतिदिन श्रद्धा, मक्तिभाव व निष्ठा के साथ किया जाय तो धीरे-धीरे मन की अतृप्त अभिलाषाएॅ पूर्ण हो जाती हैं और जीवन को सार्थक एवं उन्नति के मार्ग का सुअवसर मिलने लगता है। यह श्लोक निम्नांकित है:- सौराष्ट्र सोमनार्थ च श्री शैल मल्लिकार्जुनम् उज्जयित्यां महाकालामोकांरे परमेश्वरम् केदारंमिवत्पष्ठे डाकित्यां भीमशंकरम् नारायणस्याम च विश्वदेशम् त्ररयंबकम् गौतमी तटे। वैद्यनाथम् चिताभूषों नागेशं दारूकावने सेतु बंधे च रामेशं धुरमेशं च शिवालये। द्वादशे तानिनानमनि नामनि प्रातस्त्थाय यह वठेत सर्व पापैविनिर्मुकतः सर्वसिद्धि फलम् लभेत।
सावन महीने में सोमवार को शिव भक्तों के द्वारा पूजा व उपवास किया जाता है। किसी भी महीने में सोलह सोमवार का उत्सव शिव-पार्वती की पूजा पूर्ण श्रद्धा के साथ किया जा सकता है। सोलह सोमवार की व्रत कथा अपने आप में एक कठिन व्रत माना जाता है। सोलह सोमवार का व्रत मनुष्यों के दृढ़ संकल्प की अवधारणा को व्यक्त करता है। सोलह सोमवार की व्रत कथा कई उदाहरणों के माध्यम से यह प्रमाणित कर देता है कि यदि सच्चे मन श्रद्धा व निष्ठा के साथ सोलह सोमवार का व्रत किया जाय तो इस व्रत को करने वालों की मनोकामना व्रत के उद्यापन के समय ही प्रतिफलित होने लगता है।
अतिशीघ्र प्रसन्न होने वाले शिव जी के संबंध में शिव-पुराण में अनेक कथाएँ प्रसिद्ध हैं। इसमें भस्मासुर की कथा अत्याधिक चर्चित है। एक बार भस्मासुर अपने समस्या में दृढ़ संकल्प और मनोवांछित फल को पाने की लालसा लिए अनवरत तप करता रहा। उसकी तपस्या से भोले शंकर प्रसन्न हो गए। भगवान भक्त के अधीन हो जाते हैं। इसका सजीव रूप हमें यहीं मिलता है। शिव जी ने भस्मासुर से कहा – वत्स तुम्हारी कौन सी अभिलाषा है? जिसके कारण तुम इतना कठोर तपस्या में निमग्न हो। हम तुम्हारी तपस्या से अत्याधिक प्रसन्न हैं। तुम जो चाहो वह वर माँग लो। भस्मासुर ने कहा – मैं जिसके सिर पर हाथ रख दूँ वह भस्म हो जाय। शिव जी ने तथास्तु कह दिया। अब भस्मासुर वरदान पाकर आनन्दित हो गयो, परन्तु अपनी आसुरी प्रवृत्ति नही छोड़ सका। अपने अहं भाव से कहता है – अपनी वरदान की पहली परीक्षा आपके ही सिर पर हाथ रखकर क्यों न करूंॅ? यह सुनते ही शिव जी विस्मित हो गए। उन्हें तुरन्त अहसास हो गया। आखिर असुर अपने संस्कार को कैसे भूल सकते हैं। शिव जी दौड़ते भागते विष्णु लोक पहंॅुचे। वहांॅ पर विष्णु जी को सभी बातें यथावत् बतलाई। विष्णु जी अपनी स्मित मुस्कान के साथ कहते हैं आखिर तुम भोले शंकर ही तो हो। यह कहकर विष्णु जी ने तुरन्त सुन्दरी का रूप ले लिया। तब तक भस्मासुर भी वहाँ पहुँच गया। सुन्दरी का रूप देखकर भस्मासुर आश्चर्य चकित हो गया। सुन्दरी से अद्र्धागिनी बनने की प्रार्थना करने लगा। सुन्दरी ने एक शर्त रखी। पहले तुम मेरे साथ नृत्य करोगे तभी मैं तुम्हारी अर्धांगिनी बनने का विचार को अंतिम रूप दूँगी। भस्मासुर तुरन्त नृत्य के लिए तैयार हो गया। नृत्य करते करते सुन्दरी ने अपना एक हाथ सिर में रखा। भस्मासुर सुन्दरी के रूप से इतना अधिक मदहोश हो गया था कि उसने भी अपना हाथ अपने सिर में रख लिया। वरदान के प्रभाव से भस्मासुर तुरन्त भस्म हो गया। शिव जी विष्णु जी से प्रसन्न हो गए। इसीलिए इस संसार को गतिशील बनाने में ब्रह्मा, विष्णु और शिव एक दूसरे के पूरक हैं।
एक और किवदन्ती है। दक्षप्रजापति को बहुत ही अहंकार हो गया था। राजा दक्ष की कन्या सती शिव को पति के रूप में चाह रही थी। लेकिन दक्षप्रजापति ने शिव से सती का विवाह तो कर दिया। लेकिन शिव के प्रति अपनी भाव को तिलांजलि नहीं दे सका। अतः शिव के अपमान का कोई न कोई बहाना ढूंढते रहा। दक्षप्रजापति ने महायज्ञ किया उसमें शिव जी का अपमान करने में कोई कमी नहीं किया। इसका परिणाम अधिक अहितकारी हुआ। दक्षकन्या सती ने पति का इतना अधिक अपमान का बदला लेने के लिए यज्ञ को निष्फल करने के लिए आत्मदाह कर लिया। इतना ही नहीं प्रजापति दक्ष को अपने सिर से भी हाथ धोना पड़ा। शिव जी का क्रोध सती के वियोग से प्रचण्ड रूप धारण कर लिया। यहांॅ पर भी विष्णु जी ने प्रणाम बाण शिव जी के चरणों में डाल कर शिव जी को शान्त किया। आखिर शिव जी तो कल्याणकारी तो हैं ही साथ ही अतिशीघ्र प्रसन्न वालों में से हैं। इसी से उन्हें भोलेनाथ भी कहा जाता है। उन्होंने राजा दक्ष के शरीर में बकरे का सिर लगाकर जो वरदान दिया; उससे दक्षप्रजापति का अहंकार भी तिरोहित हो गया। यज्ञ की सफलता के लिए राजा दक्ष शिव जी की शक्ति को पहचान अनुनय विनय करने लगे। भोलेनाथ शिव ने राजा दक्ष के यज्ञ को सफल करने में अपना पूर्ण योगदान प्रसन्नतापूर्वक दिया।
पौराणिक कथा के अनुसार कालिदास ने कुमारसंभव में पर्वतराज की पुत्री पार्वती व शिव के विवाह संदर्भ को बहुत ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया है। कुमारसंभव में पार्वती की कठिन तपस्या एवं तपस्या की परीक्षा में सफल होना। तत्कालीन परिवेश में कालिदास ने शिव जी के मुख से बहुत ही सुन्दर विचारों की अभिव्यंजना प्रस्तुत किया है:-
अद्व प्रभूत्यवनतांगिर तचास्मि दासः।
क्रीतारत्पोमिरिति वादिनी चन्द्रमौली।
अह्यास सा निसमजं कलमपुत्सराजं
क्लेेश फलेन हि पुनर्नवतां विद्यते।।
पार्वती के तप और व्यवहार से प्रसन्न शिव जी ने पार्वती को संबोधित करते हुए प्रसन्नमुद्रा में कहा- हे सुन्दर अंगों और मोहक देहदृष्टि वाली पार्वती तुम्हारे तप से खरीदा गया मैं आज से तुम्हारा दास हूँ। महादेव के इन वचनों को सुनते ही पार्वती तपस्या और साधना के सारे कष्ट को तत्काल भूलकर खिल उठी। वस्तुतः साधना की सफलता व्यक्ति को इस प्रकार प्रफुल्लित कर देती है कि उसे क्लेश भी सुखद लगने लगता है। ऐसा है शिव की महिमा:-
प्रकृति के सुकुमार कवि पंत जी की यह पंक्ति कितना अधिक प्रासंगिक है
यही प्रज्ञा का सत्य स्वरूप हृदय में बनता प्रणय अपार।
लोचनों में लावण्य रूप लोक-सेवा में शिव अविकार।।
इस प्रकार सत्य और शिव ही सौंदर्य के रूप हैं। तभी तो सौंदर्य हृदय को मुग्ध कर देता है और हम उस सौंदर्य सुधा का पान करते हुए एक अनिर्वचनीय सुख की अनुभूति से अभिभूत हो जाते हैं। इसीलिए कहा जाता है – सत्यं शिवं सुन्दरम्।
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