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छत्तीसगढ़ी कविता में मद्य-निषेध. •अरुण कुमार निगम.
शराब, मय, मयकदा, रिन्द, जाम, पैमाना, सुराही, साकी आदि विषय-वस्तु पर हजारों गजलें बनी, फिल्मों के गीत बने, कव्वालियाँ बनी। बच्चन ने अपनी मधुशाला में इस विषय-वस्तु में जीवन-दर्शन दिखाया। सभी संत, महात्माओं, ज्ञानियों और विचारकों ने शराब को सामाजिक बुराई ही बताया है। छत्तीसगढ़ी कविताओं में मदिरा का गुणगान देखने में नहीं आया है। छत्तीसगढ़ी के कवियों ने मद्यपान का विरोध ही किया गया है।
आइए आज मद्यपान विषय पर छत्तीसगढ़ के कुछ पुराने और नए कवियों की कविताओं से कुछ पंक्तियों का अवलोकन करें –
सर्वप्रथम कवि कोदूराम “दलित” जी के कविता के कुछ अंश –
गुजरिस जब तोर ददा तब तँय, पाए भुइयाँ दू सौ अक्कड़
रुपिया पइसा सोना चाँदी, मँद पी पी के खोए फक्कड़।
तोर ददा बबा मन जीयत भर, कोन्होंच निसा ला छिइन नहीं
मँद मउँहा तो हे गजब दूर, चोंगी माखुर तक पिइन नहीं।।
तइसन के कुल मा राम राम, अइसन निकले तैं हर कपूत
अब घलो नहीं कुछु बिगड़े हे, मँद पीना तज बन जा सपूत।
ये मँद नोहय बिख-जहर आय, घर भर के सत्यानास करे
गँज दिन ले अरे मितान हवस, एखरे चक्कर मा तहूँ परे।
दलित जी की यह एक लम्बी कविता है, जिसका शीर्षक है – “पियइया मन खातिर”। इस कविता में सोलह-सोलह मात्राओं पर यति वाली कुल एक सौ बीस पंक्तियाँ हैं। मेरी जानकारी में दलित जी की यह कविता, मद्यनिषेध पर छत्तीसगढ़ी भाषा की सबसे लम्बी कविता है। उन्होंने मद्यनिषेध पर छत्तीसगढ़ी भाषा में कवित्त भी लिखे हैं। दलित जी ने हिन्दी भाषा में भी मद्यनिषेध पर कविताएँ लिखी हैं। विशेष उल्लेखनीय है कि सन् 1957 में मध्यप्रदेश में मद्यनिषेध सप्ताह के अंतर्गत राज्य-स्तरीय “मद्यनिषेध साहित्य प्रतियोगिता” आयोजित की गई थी जिसमें दुर्ग के कवि कोदूराम “दलित”को प्रथम पुरस्कार मिला था।। द्वितीय पुरस्कार दुर्ग के ही कवि श्री पतिराम साव को मिला था। गाडरवारा की कुमारी सुषमा खाटे को तृतीय पुरस्कार मिला था।
दुर्ग के कवि श्री रघुवीर अग्रवाल “पथिक” ने मद्यनिषेध पर अपने चरगोड़िया में एक शराबी की दुर्गति का सटीक चित्रण किया है –
पियत हवय दारू, रात दिन समारू
गिरे हवै नाली म, सुन गंगाबारू
वोकर पियास ला कुकुर मन बुझावैं
दुरगत सराबी के, देख ले बुधारू।।
छत्तीसगढ़ी भाषा में खैरागढ़ के कवि श्री विनयशरण सिंह की किताब “चल ढक्कन खोल”, संभवतः प्रथम किताब होगी जो पूर्णतः “मद्यपान” पर ही लिखी गई है। मुक्तक शैली में लिखी गई इस किताब का मूल स्वर व्यंग्य है।
जइसे जइसे दिन ढरकत हे भट्ठी मा
पीने वाला मन लरकत हें भट्ठी मा
चारों कोती नसा के जादू छाए हे
चोला के नस-नस फरकत हे भट्ठी मा।
भट्ठी हा सरग के दुवार सही लगथे
दारू हा अमृत के धार सही लगथे
दारू बेचइया हा ता फेर दरूहा परानी ला
सउँहत बरम्हा के अवतार सही लगथे।
अब कुछ नए कलमकारों की प्रतिभा से भी परिचय हो जाए जिन्होंने भारतीय छन्दों में मद्यनिषेध पर अपने उद्गार व्यक्त किये हैं –
ग्राम गिधवा (बेमेतरा) के छंद-साधक हेमलाल साहू अपने “छन्नपकैया छंद” द्वारा मदिरा पीकर वाहन न चलने की सलाह दे रहे हैं –
छन्न पकैया छन्न पकैया, सुरता राख समारू।
कभू चलाबे झन गाड़ी ला, पीके तँय हर दारू।6।
वे जयकारी छन्द में भी सचेत करते हैं –
झन पी दारू मोर मितान
जग मा मिले सदा अपमान।
छोड़ जुआ अउ चित्ती तास
होवय खेत खार धन नास।।
ग्राम हथबन्द के छन्द साधक चोवा राम ” बादल” के सरसी छन्द में एक शराबी के चरित्र को दो पंक्तियों में बताया गया है –
पी खा के जी उधम मँचाथें, उन दारू अउ मास ।
जइसे अबड़ खराये कलजुग, गुंडा करथें नास।।
“बादल” जी अपने उल्लाला छन्द के माध्यम से सचेत भी कर रहे हैं –
दारू पीके नाचबे, जम्मो इज्जत सानबे।
माखुर गुटका फाँकबे, खोख खोख तैं खाँसबे ।।
एन टी पी सी कोरबा की छंद-साधिका आशा देशमुख का यह दोहा छन्द, छत्तीसगढ़ी भाषा की भाव-सम्प्रेषण क्षमता का प्रत्यक्ष प्रमाण है –
जे घर मुखिया दारू बेचय, वो घर कोन बचाये।
पैरावट मा आगी धरके, बीड़ी ला सुलगाये।
अपने सार छंद में भी उन्होंने इन्हीं भावों को कुछ इस तरह से प्रकट किया है –
मुखिया बेंचय दारू ला ता,घर ला कोन बचाही ।
बीड़ी सुलगाबे बारी मा,पैरावट जल जाही।8
बलौदाबाजार के छंद-साधक दिलीप कुमार वर्मा अपने दुमदार दोहे में दमदार बात कही है –
दरुहा सोंचत हे सगा, खाँव कसम मँय आज।
छोड़वँ दारू काल ले, तब बनही सब काज।
आज थोरिक पी लेथौं।
कसम काली बर देथौं।।
वे अपने रोला छंद में मदिरा के दुष्परिणाम भी बता रहे हैं –
राजा होथे रंक, नसा के ये चक्कर मा।
पूँजी सबो सिराय, लगे आगी घर-घर मा।
करथे तन ला ख़ाक, सचरथे सबो बिमारी।
जल्दी आवय काल, बिखरथे लइका नारी।।
बिलासपुर के छन्द-साधक इंजी.गजानंद पात्रे “सत्यबोध” आजकल गजल भी लिख रहे हैं। मद्यनिषेध पर उनका एक शेर देखिए –
हे नाश नशा दारू, घर-द्वार सबो उजड़े।
सुख शांति खुदे तन ला, शमशान करे मनखे।।
इसी क्रम में ग्राम कचलोन (सिमगा) के छंदसाधक मनीराम साहू ‘मितान’ ने अमृत ध्वनि छन्द में व्यंग्य का शिष्ट प्रयोग किया है –
सुन चकरित खागेवँ मैं, दरुहा मन के गोठ।
कहिँन रोग ले झन डरा, पीबो हम तो पोठ।
पीबो हम तो, पोठ बिकत हे, जब सरकारी।
धरय नही सुन, एकर पीये, एक बिमारी।
मंद हरय जी, कोरोना के, औषध पबरित।
फुटिस नही जी,बक्का मुँह ले,मैं सुन चकरित
गोरखपुर, कवर्धा के छन्द-साधक सुखदेव सिंह अहिलेश्वर, “भुजंग प्रयात छंद” में नशे को विनाशकारी बताते हुए उससे बच कर रहने की नसीहत दे रहे हैं –
करौ रोज योगा निरोगी बनौ जी।
रखे सोंच सादा सही मा सनौ जी।
नशा नाशकारी पियावौ न पीयौ।
बिमारी रहे दूर सौ साल जीयौ।
वे अपने “दोहा छन्द” में भी मदिरा के दुष्परिणाम के प्रति सचेत कर रहे हैं –
टँठिया लोटा बेंच के, पीयय दारू मंद।
ते प्रानी के जानले, दिन बाँचे हे चंद।7।
भाटापारा के साधक अजय “अमृतांशु” अपने “त्रिभंगी छन्द” में मद्यनिषेध की बात कुछ इस तरह से करते हैं –
दारू ला पीबे, कम दिन जीबे, दुख के येमा, खान भरे।
पीथस तँय काबर, एक मन आगर, बरबादी हे, जान डरे।
लोटा बेचाये, गारी खाये, दारू पी के, नाश करे ।
कोनो नइ भावय, कुछु नइ पावय, अक्खड़ दरुहा, नाम परे।
ग्राम अल्दा (तिल्दा) के छन्द-साधक मोहन लाल वर्मा “आभार सवैया” में नशा त्यागने के लिए अनुरोध कर रहे हैं –
हीरा सही तोर काया ल संगी,बिना फोकटे के तमाशा बनाये ग ।
झूमे गली खोर मा मंद पीके, जमाना घलो मा शराबी कहाये ग।
माने नही बात ला रार ठाने ,खुदे मान पैसा सबो ला गँवाये ग ।
छोड़े नशा के करे तोर वादा, बता फेर कैसे कहाँ तैं भुलाये ग।।
ग्राम चंदैनी, कवर्धा के छंद-साधकज्ञानुदास मानिकपुरी के “चौपई छंद” मद्यपान के कारण उत्पन्न हालात का वर्णन करते हुए कहते हैं –
दारू के बोहाथे धार,
पीके रोज मतावय रार।
का लइका डोकरा जवान।
झुमरत रहिथे बड़े बिहान।।
सारंगढ़ के छंद-साधक दुर्गा शंकर इजारदार “बरवै छन्द” के माध्यम से सचेत करते हुए कहते हैं –
नशा नाश के जड़ ए , तँय हर जान ।
माटी मा मिल जाथे , सब सनमान ।1।
बीड़ी दारू गाँजा , सबला छोड़ ।
आगू बढ़ना हे ता ,पइसा जोड़ ।3।
वे “विष्णु पद छंद” में कुछ इस तरह से उलाहना दे रहे हैं –
कुकरी दारू मा माते हस, छूटे राम लला।
घर के खेती परिया परगे ,कइसे तोर कला।।
नवोदित छन्द साधक अशोक धीवर “जलक्षत्री” अपने “रोला छन्द” के माध्यम स मद्यनिषेध का समर्थन करते हुए कहते हैं –
दारू झन पी यार, फेर पाछू पछताबे।
जिनगी के दिन चार, कहाँ तँय येला पाबे।।
माँसाहार तियाग, तहाँ ले जिनगी बड़ही।
सुख पाबे भरमार, इही हा मंगल करही।।
राजिम की नवोदित छन्द साधिका सुधा शर्मा “छन्नपकैया छन्द” में अपनी बात कहती हैं –
छन्न पकैया छन्न पकैया,होगे हावे गड़बड़।
सुते हवे इतवारी भैया,पीए दारू अड़बड़।।
ग्राम समोदा के नवोदित छन्द साधक गुमान प्रसाद साहू का “छप्पय छन्द” इसी संदर्भ में कुछ इस तरह से है –
”
दारू गुटखा पान, हानिकारक बड़ हावय,
करय अपन नुकसान, जेन हा येला खावय।
आनी-बानी रोग, खाय ले येकर होथे,
परे नशा के जाल, जान कतको हे खोथे।।
किरिया खाके तुम सबो, नशा पान ला छोड़ दव।
आज नशा के जाल ला, जग ले सबझन तोड़ दव।।
अन्त में मेरा माने दुर्ग के अरुण कुमार निगम का “रोला छन्द भी यही निवेदन कर रहा है कि मदिरा का त्याग करो –
पछतावै मतवार, पुनस्तर होवै ढिल्ला
भुगतै घर परिवार, सँगेसँग माई-पिल्ला
पइसा खइता होय, मिलै दुख झउहा-झउहाँ
किरिया खा के आज, छोड़ दे दारू-मउहाँ
आलेख – अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़
[ ●आलेख,दुर्ग-छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार अरुण कुमार निगम. ]
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