■मुंशी प्रेमचंद की 141वीं जयंती पर विशेष- ■लेख,ओमप्रकाश साहू ‘अंकुर’.
■प्रेमचंद की रचनाओं में भारतीय किसान.
-ओमप्रकाश साहू ‘अंकुर’
【 सुरगी,राजनांदगांव-छत्तीसगढ़. 】
●आज़ उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की 141वीं जयंती है.
●जन्म- 31 जुलाई 1880.
●देहावसान- 8 अगस्त 1936.
किसान को “धरती का भगवान” कहा जाता है. अन्नदाता किसान सर्दी, गर्मी, बरसात सब कुछ सह कर जी- तोड़ मेहनत करता है. खेती किसानी से ही उनकी घर गृहस्थी चलती है. किसानी में लागत इतना आता है कि किसान कर्ज के बोझ तले दब जाता है और अकाल पड़ गया तो” दुब्बर पर दो आषाढ़ ” कहावत चरितार्थ हो जाती है.
महान कहानीकार एवं उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने अपनी कहानी पूस की रात, सवा सेर गेहूं एवं उपन्यास गोदान के माध्यम से भारतीय कृषक के संघर्षमय जीवन का वर्णन किया है .उक्त तीनों रचनाओं में भारतीय कृषक की प्रायः सभी समस्याएं उभरी है.
सवा सेर गेहूं कहानी के नायक शंकर नामक छोटे किसान है. वह सीधा साधा गरीब एवं छल प्रपंच से दूर रहने वाला आदमी था. शंकर भगवान के भक्त थे और साधु महात्मा की सेवा करना अपना परम कर्तव्य समझते थे. वह खुद भूखा सो सकते थे परंतु साधु महात्मा को कभी भूखे नहीं सुलाये. एक बार उनके घर महात्मा जी आये तो घर में जौ का आटा था परंतु रुचिकर भोजन कराने के चक्कर में गांव के विप्र जी महाजन से सवा सेर गेहूं उधार लिया. प्रेमचंद जी यहां लिखते हैं कि “सरल शंकर को क्या मालूम था की सवा सेर गेहूं चुकाने के लिए मुझे दूसरा जन्म लेना पड़ेगा” .
इस कहानी में महाजन द्वारा एक गरीब किसान का मनमाना शोषण का बखूबी चित्रण किया गया है. चैत में विप्र जी को शंकर ने डेढ़ पसेरी के लगभग गेहूं खलिहानी के रूप में दिया और अपने को उऋण समझ कर उसकी कोई चर्चा नहीं की. विप्र जी ने भी फिर ना मांगा.
इस कहानी में किसान परिवार के विघटन का भी मार्मिक चित्रण किया गया है . सात साल बाद शंकर का छोटा भाई मंगल उससे अलग हो गया. यहां प्रेमचंद जी लिखते हैं-” विप्र जी, विप्र से महाजन हुए. शंकर किसान से मजदूर हो गया “.यहां उन्होंने अपनी लेखनी से बताया है कि शोषक वर्ग किस तरह बेईमानी की कमाई से फलता फूलता है और गरीब ईमानदार और गरीब होता जाता है .भाई बराबर दोस्त नहीं और भाई बराबर दुश्मन नहीं कहा गया है . प्रेमचंद जी की लेखनी देखिए -“आज से भाई भाई शत्रु हो जाएंगे ,एक रोएगा तो दूसरा हंसेगा, एक के घर में मातम होगा तो दूसरे के घर गुलगुले पकेंगे ,प्रेम का बंधन, खून का बंधन ,दूध का बंधन आज टूटा जाता है.
सात साल बाद विप्र जी एक दिन शंकर को कहता है कि- “तेरे यहां साढ़े पांच मन गेहूं कब से बाकी पड़े हुए हैं तू देने का नाम नहीं लेता ,क्या हजम करने का मन है क्या? यह सुनकर शंकर दंग रह गया क्योंकि वह सवा सेर गेहूं का ही जिक्र कर रहा था. शंकर कहता है महाराज नाम ले कर तो मैंने उतना अनाज नहीं दिया पर कई बार खलिहानी में सेर -सेर, दो -दो सेर दिया है. इस प्रसंग के माध्यम से प्रेमचंद जी अनपढ़, गरीब लोग किस तरह ठगे जाते हैं उनका हृदयस्पर्शी चित्रण किया है.
शंकर कर्ज को छूटने के लिए जी तोड़ मेहनत करता है .प्रेमचंद जी यहां लिखते हैं-” दोपहर को पहले भी चूल्हा न जलता था,चबेने पर बसर होती थी, अब वह भी बंद हुआ, केवल लड़के के लिए रात की रोटियां रख दी जाती .उसने चिलम पटक दी,हुक्का तोड़ दिया और तंबाकू की हांडी चूर चूर कर डाली .कपड़े पहले भी त्याग कर चरम सीमा तक पहुंच चुके थे अब वह प्रकृति की न्यूनतम रेखाओं में आबद्ध हो गए. कर्ज से परेशान किसान, मजदूर का इतना मार्मिक चित्रण कलम के सिपाही सिपाही प्रेमचंद ही कर सकते थे .
प्रेमचंद जी आगे कहते हैं कि-” क्रिया के पश्चात प्रतिक्रिया नैसर्गिक नियम है .शंकर साल भर तक खूब मेहनत करने के बाद भी जब ऋण से मुक्त होने में सफल नहीं हो सका तो उसका संयम निराशा के रूप में परिणत हो गया .जो शंकर पहले जुड़ी चढ़ी होती थी पर वह काम करने अवश्य जाता था अब काम पर ना जाने के लिए बहाना खोजा करता. यहां कर्ज में डूबे किसान की किंकर्तव्यविमूढ़ दशा का चित्रण किया गया है.
एक दिन पंडित जी शंकर को बुलाकर कहा -“साठ रुपये जो जमा थे वह मिनहाकरने पर अब ₹120 हो गए हैं.” तो जो शंकर पहले कहता था कि “महाराज तुम्हारा जितना होगा यही दूंगा ईश्वर के यहां क्यों दूं? अब आक्रोश होकर कहता है-” इतने रुपए तो उसी जन्म में दूंगा इस जन्म में नहीं हो सकते !
अंत में कर्ज छूटने के लिए शंकर महाजन के यहां काम करने लगते हैं .यहां प्रेमचंद जी कलम चलाते हैं-” सवा सेर गेहूं के बदले उम्र भर के लिए गुलामी की बेड़ी पैरों में डालनी पड़ी. शंकर की स्त्री को वह काम करने पड़ते थी जो उसने कभी ना किए थे .बच्चे दाने को तरसते थे लेकिन शंकर चुपचाप देखने के सिवा और कुछ ना कर सकता था .शंकर बीस वर्ष तक गुलामी करने के बाद इस संसार से विदा हुए परंतु एक सौ बीस रुपये अभी तक उसके सिर पर सवार थे .अब विक्रम महाजन ने शंकर के जवान बेटे की गर्दन पकड़ी .यहां प्रेमचंद जी दिल को छू लेने वाला चित्रण करते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी कर्ज में डूबे किसान की माली हालत को यूं बयां करते हैं -“उसके जवान बेटे आज तक विप्रजी के यहां काम करता है. उसका उद्धार कब होगा, होगा भी या नहीं ईश्वर ही जाने। ”
इस प्रकार प्रेमचंद जी ने अपनी अद्भुत लेखनी से इस कहानी के माध्यम से कर्ज में डूबे किसान की त्रासदी का बेहद मर्मान्तक ढंग से चित्रण किया है. यह कहानी शोषक वर्ग का काला चिट्ठा खोलकर रख देता है वही किसानों को उचित दाम दिलाने और कर्ज मुक्त करने हेतु उपाय करने को शासन प्रशासन को प्रेरित करते हैं.
अन्नदाता कल भी छले जाते थे और आज भी छले जा रहे हैं. आज मजदूर किसान से ज्यादा खुश है. क्योंकि किसान की हालत आज भी मुंशी प्रेमचंद की कहानी “पूस की रात” के नायक हल्कू जैसे है और सरकार किसानों को हल्के में ही लेते हैं. बस शोषण के तरीके बदल गए हैं. किसान संगठित नहीं है. इसका भरपूर फायदा हर कोई उठाता है.
मुंशी प्रेमचंद सवा सेर गेहूं, पूस की रात और उपन्यास गोदान के माध्यम से किसानों की दुर्दशा का चित्रण कर जागृति का काम करते हैं. वे किसानों को जहां कुरेदते है तो शासन को भी अगाह करते हैं कि यही हाल किसानों का रहा तो वे हल्कू जैसे किंकर्तव्यविमूढ़ बन जायेंगे. फिर अन्न उपजाने का काम कौन करेगा! और जब किसान अन्न नहीं उपजायेंगे तो लोग अपने पेट कैसे भरेंगे! इस प्रकार प्रेमचंद जी ने भारतीय किसान की पीड़ा को बखूबी ढंग से उकेरे है.
प्रेमचंद जी की यह मान्यता है कि अतत : सत्य की ही विजय होती है. अतएव समाज में व्याप्त रुढ़ियों, कुरीतियों, पाखण्ड अंधविश्वासों आदि का विनाश होना ही चाहिए और शोषण,अन्याय के खिलाफ आवाज बुलन्द करना चाहिए.
सन 1916 से 1936 तक उन्होंने लगभग 300 कहानियां लिख कर हिन्दी कहानी को एक निश्चित यथार्थवादी दिशा प्रदान की थी. चौदह सर्वश्रेष्ठ छोटे बड़े उपन्यास लिखे. सन 1909 में उनके “सोजे वतन “कहानी संग्रह को अंग्रेज सरकार ने जब्त कर लिए. स्वदेश प्रेम की महिमा उन्होंने उक्त संग्रह के माध्यम से भारतीय जनता तक पहुंचाई थी. वे सन 1925 में ही देश के शीर्षस्थ साहित्यकार के रुप में जाने जाते थे.
उन्हें अपनी राह स्वयं बनानी पड़ी. जब वे 7 वर्ष के थे तब उनकी माता साथ छोड़ कर इस दुनियां से चली गई. मात्र 14 वर्ष की आयु में इनके विवाह के पश्चात इनके पिता का देहान्त हो गया. इस प्रकार अल्पायु में ही उन पर परिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ आ पड़ा. 1889 में चुनार (बनारस ) की एक पाठशाला में अध्यापक पद पर उनकी नियुक्ति हुई.
उन्होंने बहुत ही संघर्षमय जीवन व्यतीत किया. आर्थिक कमजोरियों के बावजूद उन्होंने साहित्य के माध्यम से आजादी की लड़ाई को घरु मोर्चे पर डटे रह कर साहित्य के औजारों से आजीवन लड़ते रहे.
प्रख्यात कहानीकार डॉ. परदेशी राम वर्मा जी प्रेमचन्द जी के बारे में लिखते हैं कि – ” भिन्न -भिन्न साधनों और साजिशों के बल पर दूसरों के हक को छीन लेने वाले ठगों और पिण्डकारियों के खिलाफ लड़ते हुए उन्होंने जीवन होम कर दिया. उनके जीवन संघर्ष और त्याग की कथा जानने पर ज्ञात होता है कि वे शहीद है. देश और इंसानियत के लिए स्वयं को हंसते -हंसते होम करने वाला जाबाज शहीद. ”
बड़े -बड़े राजनेताओं ने अपने आंदोलनों से विसंगतियों के खिलाफ लोगों को लामबंद न किया होगा जितना अपनी कहानियों से प्रेमचन्द ने किया ।
कथा सम्राट प्रेमचंद जी को उनकी 141 वीं जयन्ती पर शत् शत् नमन है।
●लेखक संपर्क-
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