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  • ■आज़ विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष : •राम के युग में प्रकृति और पर्यावरण की वर्तमान उपादेयता. •डॉ. दिग्विजय कुमार शर्मा.

■आज़ विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष : •राम के युग में प्रकृति और पर्यावरण की वर्तमान उपादेयता. •डॉ. दिग्विजय कुमार शर्मा.

4 years ago
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प्रकृति और पर्यावरण हमारे जीवन के लिए सदैव मूलभूत आवश्यकता रही है। फिर चाहे कोई युग , काल ही क्यों न हो। यह प्रत्येक जीव-जीवन के लिए पर्यावरण प्राणवायु है। रामराज्य के समय की रामकथा का मूल प्रांगण प्रकृति और पर्यावरण ही रहा है क्योंकि श्रीराम ने और देवी सीता ने अपने जीवन का उत्कर्षमय समय तपोवनों में ही बिताया था। श्रीराम की ‘चरित’ कथा का पल्लवन, पुष्पन और फलन भी वनों में ही हुआ था। यदि गंभीरतापूर्वक विचार करें तो ये वन नहीं तपोवन थे जहां खुले आकाश में वृक्षों के नीचे, नदियों के किनारे और पर्वतों की उपत्यकाओं में ऋषि-मुनि और ब्राह्मण कठोर तपस्या के द्वारा आत्मसाधना करते हुए धर्म, ज्ञान, भक्ति और मुक्ति जैसे जीवन के मूल्यवान फलों को प्राप्त करते थे। इसलिए रामकथा में प्रकृति और पर्यावरण का वह सुरम्य रूप उपलब्ध होता है जो तप, त्याग, संतोष, धैर्य सहिष्णुता, सत्य, अहिंसा और परोपकार आदि के महान मानवीय तत्त्वों से ओतप्रोत है सामान्य रूप से प्रकृति और पर्यावरण से सत्य, शिव और सुन्दर की प्रतिभूति होती है।

सत्य के अनेक रूपों में सबसे सरल और साधारण रूप प्राकृतिक ही है। प्रकृति और जीवन का भौतिक परिवेश इसके अन्तर्गत है तथ्य और सिद्धान्त दोनों ही रूपों में यह प्राकृतिक सत्य काव्य का उपादान बनता है। तात्पर्य यह है कि यह चरम सत्य, सत्य होने के साथ-साथ जीवन के मंगल का भी परम रूप है। शिवम भी सत्य के समान जीवन की एक व्यापक कल्पना है। सौन्दर्य आनन्द से अभिन्न है। सौन्दर्य रूप का अतिशय है। हमारी दृष्टि प्रकृति के रूप पर ही रहती है। इसीलिए हमें प्रकृति में सौन्दर्य दिखाई देता है। रूप की प्रधानता ही प्रकृति के सौन्दर्य का रहस्य है। प्रकृति में सौन्दर्य की इस अभिव्यक्ति का क्रम अनंत है। अतः प्रकृति अनत सुन्दरी है। रामकथा में सद्भावों, विचारों और कार्यों की प्रेरणा देने से प्रकृति सत्वरूपिणी जीवनोपयोगी अन्न तथा फलादि की धात्री होने के कारण शिवरूपिणी और जीवन में आत्मानन्द और आत्मशान्ति प्राप्त कराने का माध्यम होने के कारण सौन्दर्यमयी होती है। अतः रामकथा में प्रकृति का इन्ही तत्वों के परिप्रेक्ष्य में आकलन विकलन करना उपयोगी होगा।

सत्य रूप को भगवान् श्रीकृष्ण ने ‘गीता’ में अर्जुन से कहा है कि, हे अर्जुन ! में जल मे रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूं, सम्पूर्ण वेदों में ओकार हूं, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ। में पृथ्वी में पवित्र गन्ध और अग्नि में तेज हूं तथा सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूं और तपस्वियों में तप हू ।

“रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो ।
प्रणव सर्व वेदेषु शब्द खे पौरुष नपु।”

जीवन ‘सर्वभूतेषु तपश्यामि तपस्विषु’ इससे स्पष्ट है कि सचेतन रूप परमात्मा को परिव्याप्ति प्रकृति में विद्यमान है। ‘कामयमनी’ में प्रसाद ने प्रकृति को चेतन अर्थात् तत रूप में ही प्रस्तुत किया है?

“विर-मिलित प्रकृति से पुलकित यह चेतन पुरुष पुरातन, निज शक्ति तरंगावित या आनंद-अबु-निधि सोमन।”

यह सदस्वरूप प्रकृति और पर्यावरण मनुष्य को एक सत और उपदेष्टा की भांति शिक्षा और उपदेश देकर ज्ञानवर्द्धन करती है।।

‘रामचरितमानस’ में प्रकृति और पर्यावरण का यह ज्ञानमूलक उपदेशात्मक तथा चेतनामूलक शिक्षा उपलब्ध है। गोस्वामी तुलसीदास ने वर्षा ऋतु का वर्णन करते हुए श्रीराम के मुख से प्रकृति के इसी रूप का निदर्शन कराया है।

“यामिनि दमक रही न घन माही। खल के प्रति जया मिर नाहीं।।
बरपति जलद भूमि निअराएं। जथा नवहि बुध विद्या पाए ।।
मूद अघात सहहि गिरि कैसे, डाल के बचन सत सह जैसे।।
खुद नदी गरि चली तोराई। जस बोरे धन खल इतराई ।।
भूमि परत मा वावर पानी। जन जीव माया लपटानी ।।
समिटि समिट जत गरहि तलावा। जिमि सद्गुन सज्जन पहि आवा।।
सरिता जल जलनिधि महु जाई। होइ अचल जिमि जिवहरि पाई।।”

‘हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहि नहि पंथ। जिमि पाखंड विवाद से लुप्त होहि सदग्रंथ।।’

इसी प्रकार शरद ऋतु के वर्णन में भी चेतना और ज्ञान मूलकता विद्यमान है और राम पुनः लक्ष्मण से कहते है –

“उदित अगस्ति पंथ जल सोमा। जिमि लोगहि सोभइ सतोमा ।।
सरिता रस निर्मल जल। संत हृदय जस गत मद मोहा॥
रस रस सूख सरित सर पानी। ममता त्यान करहि जिमि ग्यानी ।।
जानि सरद रितु खजन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए ।।
पंक न रेनु सो असि धरनी। नीति निपुन नृप के जति करनी।।
जल संकोच विकल गई मीना। अबुध कुंटुबी जिमि धनहीना।।
बिनु धन निर्मल सोड अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आता।।
कटुक दृष्टि सारदी थोरी। को एक पाव भगति जिमि गोरी।।
‘सुखी मीन जे नीर अगाथा। जिमि हरि सरन न एकर बाधा ।।”

‘कमल सोहतर कैसा निर्गुन ब्रह्म सगुन गएं,’ जैसा केशव की ‘रामचन्द्रिका’ में भी प्रकृति के धर्म और मुक्ति-साधक सत् स्वरूप के दर्शन होते हैं। पंचवटी का तपोयन भगवान विष्णु की मूर्ति के समान लगता है जिसे देखते ही मन में श्रद्धा और भक्ति उमड़ पड़ती है। इस पंचवटी की पवित्रता भव्यता, शान्ति और सुरम्यता इतनी पवित्र है जैसे यह पार्वती की क्रीडा स्थिति हो और मानी शंकर का रूप ही हो।

“नैननि को बहु रूपनि यसै। श्रीहरि की जनु मूरति लसे।।
केमिली जनु श्रीगिरिजा की। सोन घरे सिविकट प्रभा की।।”

निकट ही गोदावरी नदी बहती है, जो सभी पापों का संहार करने आती है।

“अति निकट गोदावरी पाप सहारिनी चल तुरंगतुगावली चारु संचारिनी”
गोदावरी में स्नान करने से पापी साधुओं की गति प्राप्त करते है।
“रीति मनो अधिबेक की थापी साधुन की गति पावत पापी”

इसी प्रकार रामचन्द्रिका में त्रिवेणी का वर्णन भी सत् रूप में उपलब्ध होता है।

“मदसागर की जनु सेतु उजागर सुन्दरता सिगरी बस की।
तिदेवन की दुति ती दरसे गति सोखे त्रिदोषन के रस की।
कहि केशव वेदत्रयी गति सी परितापत्रयी तल को मसकी।
सदै त्रिकाल त्रिलोक त्रिवेणिहि केतु त्रिविक्रम के जसकी।।’

यह त्रिवेणी पृथ्वी तल की श्रेणी सी सोहती है और कोई कोई कहते हैं, कि यह ज्ञान का मार्ग है। यह परिपूर्ण अनादि और अनंत ईश्वर का जलमय शरीर ही है। यह त्रिवेणी सुख और सब शोभा को पैदा करने वाली है। मुझे तो ऐसा लगता है कि यह कोई अद्भुत और शुद्ध निर्मलकारी सुगन्ध है, जिसके दरस्परस मात्र से चराचर जीवों के असंख्य जन्मों के पाप मिट जाते है।

इन सभी सन्दर्भों से स्पष्ट है कि, सात से पूर्व के रामों में प्रकृति के सर्वत्र दर्शन होते है। गंगा, यमुना, सरयू तथा गोदावरी आदि नदियों को उन सभी में भी पवित्र माना जाता था और आज भी समाज इन्हें देवी मानकर पूजा करता है। ये नदियां आज भी मुक्ति प्रदायिनी और पापनाशिनी बनी हुई है। कालमुनियों के आश्रम और समस्त उपोवन उस समय तप और साधना के क्षेत्र थे। इन वर्णनों के अवलोकन से मन में त्याग, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य सतोष आदि का प्रादुर्भाव होता है।

शिव रूप प्रकृति और पर्यावरण का है, यही शिव रूप तो सर्व सिद्ध है। इसी से अन्न, जल, फल, फूल, लमणि काष्ठ-इंधन आदि जीवनोपयोगी पदार्थ उपलब्ध होते हैं। रामायणकाल में ऋषि-मुनि उपोवनों में हो रहते थे। वहीं जलाशयों में स्नान आदि करते। और उन्ही का जल पीते थे। वनों के फल-फूल और कन्द-मुूल खाकर अपना निर्वाह कर लेते थे। वहीं से उन्हें हवन यज्ञ आदि के लिये समिधार प्राप्त होती थी। इसीलिये प्रकृति सर्वत्र कल्याणप्रदा बनी हुई थी। रामचरितमानस में इसका वर्णन उपलब्ध है।

कद मूल फल पत्र सुहाए। भए बहुत जबते प्रभु आए।”

‘मंगलरूप भयउ वन तब से कीन्ह निवास’

रमापति जब उनके पास गए तभी से विश्वामित्र का तपोवन सदा फल-फूलों से युक्त रहता था। ‘अति प्रफुलित फलित सदा रहे ‘केसोवास’ विचित्र बन, वृक्षों से छाया मिलती है जिनके नीचे बैठकर राहगीर अपनी थकान मिटाते और सुख प्राप्त करते हैं। श्रीराम और सीता वन में वृक्षों की छाया में बैठते हुए और अपनी थकान को दूर करते हुए अत्यधिक सुख का अनुभव करते हैं।

“बहु बाग वदाम तरंगिनि वीर तमाल की छाह बिलोकि मली।
पटिका इक बैठत है सुख पाइ बिछाइ वहां कुस कांस थली।
मग को श्रम श्रीपति दूर करें सिय को सुभ बाकल अचल सो।
श्रम तेऊ हरे तिनको कहि केसव’ चंचल चारु दृगंचल सो।”

पंचवटी के सभी वृक्ष फलों और फूलों से युक्त रहते थे।

“फल फूलनि पूरे तरुवरसरे कोकिलकुल कलरद बोले ।”

महर्षि भरद्वाज मुनि की वाटिका भी सदा फल-फूलों से युक्त रहती थी।

“भरद्वाज की वाटिका राम देखी महादेव की सी बनी वित्त लेखी।
सबै वृक्ष मदारहूं तें भले है, छहू काल के फूल फूले फूले हैं।”

इस विवेचन से स्पष्ट होताहै कि साकेत से पूर्व रामकथा के वस्तु-विधान में तपोवनों की सम्पदा का शिव-रूप उपलब्ध है।

सुन्दर रूप प्राकृतिक और पर्यावरण सौन्दर्य तो सभी के मन को मोह लेता है।

भारतवर्ष के प्राकृतिक सौन्दर्य के संबंध में तो यह धारणा बनी हुई है कि,

“मनमोहिनी प्रकृति की जो गोद में बसा है, सुख-स्वर्ग सा जहां है वह देश कौन सा है?”

रामकथा में भी वनों, उपवनों और जलाशयों आदि के मनमोहक वर्णन उपलब्ध होते हैं।

गिरि बन नदी ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति होहिं सुहाए।।

खग मृग मृद अनंदित रहही। मधुप मधुर गुंजत छबि लहहीं।।

अयोध्या के उपवन और सरोवर की शोभा को देखकर मुनि विश्वामित्र का मन भी मोहित हो गया था। रामचन्द्रिका में प्रकृति के सौन्दर्य का इस प्रसंग में अत्यंत आकर्षक रूप उपलब्ध होता है।

“देखि बाग अनुराग उपज्जिय बोलत कल ध्वनि कोकिल।।
सज्जिय राजवि रति की सखी सुबेपनि गनहुँ बहति मनमथ- संदेसनि ।।”
फूल फूलि तरु फूल बदावत मोदत महामोद उपजावत ।।
उड़त पराग न चित्त उड़ावत घमर घमर नहि जीव ममावत ।।

“सुभ सर सोमै मुनि-मन सौमे सरसिज फूले अलि रसमूले ।’ जलचर डोले बहु खग बोलें बरनि न जाहीं उर उरझाही ।।

रामायणकाल में तपोवनो का वातावरण शान्त और सौहार्दपूर्ण रहता था। इन सबके प्रभाव से सर्वत्र आत्मसुख और सौन्दर्य विराजमान रहता था। पम्पा-सरोवर को सौन्दर्य का अत्यंत मनोहारी वर्णन ‘रामचदिका’ में उपलब्ध है।

“सिगरी रितु सोमित सुभ नहीं, लह ग्रीषम पै न प्रवेस सही।’

“नव नीरज नील वहां सरसे सिय के सुभ लोचन” से दर त्रिवेणी के अभूतपूर्व सौन्दर्य का वर्णन भी रामचन्द्रिका में उपलब्ध है। श्रीराम स्वयं त्रिवेणी की शोभा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि –

“चिलकै दुति सूक्ष्म सोभति बाल तनु वे जनुसेवत है सुर चारू । प्रतिबिंबित दीप दिये जल माही जनु ज्वालमुखीन के जाल नहाहीं।।’

‘जल की दुति पीत सितासित सोहै। बहु पातक-धात करे इक को है। मद-एन मलै घसि कुंकुम नीको नृप भारतखंड दियो जन टीको।।’

इससे स्पष्ट है कि, रामकथा में प्रकृति का सुन्दर रूप भी आमसुख और शान्ति के धरातल पर उपलब्ध होता है। वाल्मीकि रामायण में भी वर्षा और शरद् ऋतुओं के सौन्दर्य का वर्णन उपलब्ध है।

प्रकृति और पर्यावरण का यह सत्य, शिव और सुन्दर स्वरूप उसका पूर्ण रूप होता है। इसीलिये प्रकृति और पर्यावरण का यह स्वरूप सभी स्थानों और सभी युगों में सर्वग्राह्य रहा है, क्योंकि जिस प्रकार रामकथा के अन्य आयाम पाठकों की उदात्त वृत्तियों को जाग्रत करते हैं, – उसी प्रकार प्रकृति और पर्यावरण का यह रूप भी सर्वत्र शिक्षा प्रेरणा और चेतनामूलक है। इसे प्रकृति का आलम्बन रूप कह सकते हैं।

निष्कर्षतः वर्तमान में जो भी परिस्थितियां देश और विश्व में बन रही हैं वो सभी प्रकति और पर्यावरण के दोहन के कारण ही यह सब हो रहा है, मॉनव जीव अपनी सुख सुविधा सम्पन्नता के कारण ही प्रकृति की तरफ ध्यान नही दे रहा है, उसी का परिणाम तत्कालिक हालातों से चाहे वह महामारी हो , या अन्य प्रकार की आपदाएं क्यों नही इन सभी का मूल कारण है। आज हम सभी वैश्विक स्तर पर एकजुट होने की आवश्यकता है, एक जुट होकर प्रकृति और पर्यावरण को अपने जीवन की तरह सहेजने, संवर्धन और संरक्षण करने की अत्यंत आवश्यकता है, हमको अपने पवित्र ग्रन्थों से सीखना चाहिए, उनका अनुसरण करना चाहिए जिससे हमको जीवन की जीवनपर्यंत संजीवनी प्राप्त होती है।

[ डॉ. दिग्विजय कुमार शर्मा, शिक्षाविद, स्तम्भ लेखक हैं. ‘आगरा’ निवासी डॉ. दिग्विजय जी ने पर्यावरण पर यह लेख विशेष रूप से ‘छत्तीसगढ़ आसपास’ के लिए भेजा. -संपादक.]

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