परिचय : राजकुमार जैन ‘राजन’
राजस्थान के चित्तौडगढ़ जिले के गाँव आकोला में जन्में और जन्मभूमि को ही अपनी कर्म भूमि बनाने वाले राजकुमार जैन राजन बहुमुखी प्रतिभा के रचनाकार हैं जिनकी सैंकड़ों रचनाएँ देश – विदेश की पत्र -पत्रिकाओ में छपने के साथ ही आपकी 40 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है जिनमें 36 पुस्तकें बाल साहित्य की है। “मन के जीते जीत”, “पेड़ लगाओ” , “खोजना होगा अमृत कलश”, “सपनों के सच होने तक”, मौन क्यों रहें हम” एवम “जीना इसी का नाम है” साहित्य जगत में आपकी चर्चित कृतियाँ हैं।
आकाशवाणी और टी. वी. चैनलों पर रचनाओं का नियमित प्रसारण। आपकी कई पुस्तकों का पंजाबी, असमिया, ओड़िया, मराठी, गुजराती , अंग्रेजी भारतीय भाषाओं सहित नेपाल, श्रीलंका चाइना से भी अनुदित संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। बाल साहित्य सृजन व उन्नयन में विशेष रुचि रखने वाले राजन एक कुशल संपादक के रूप में भी पहचाने जाते हैं। आप कई पत्रिकाओं के संपादन से जुड़े हुए हैं और कई पत्रिकाओं ने अपने चर्चित “बाल साहित्य विशेषांक” आपके संपादन में प्रकाशित किये हैं।
आप कई साहित्यिक सम्मानों के संस्थापक हैं और प्रतिवर्ष भव्य आयोजन करके साहित्यकारों को सम्मानित करते हैं। राजन जी को शताधिक साहित्यिक सम्मान प्राप्त हो चुके है। देश- विदेश में अनेक साहित्यिक कार्यक्रमों, कार्यशालाओं में सहभागिता के साथ ही लाखों रुपये का साहित्य आप निःशुल्क भेंट कर चुके हैं/निरन्तर कर रहे है। कहानी, कविता, पर्यटन, साक्षात्कार, लोकजीवन एवम बाल साहित्य आपके लेखन की पसंदीदा विधाएं हैं।
■जीवन में कम क्यों हो रही प्रेम की मिठास
कुछ दिनों पूर्व संवत्सरी पर्व था। व्हाटसप, फेस बुक पर ढेर सारे मेसेज मिले – क्षमा याचना के, बधाई के, आदर्श और उपदेश के भी। कुछ महीने पहले मेरा जन्म दिवस भी निकल गया। फेस बुक ने बता दिया कि मेरा जन्म दिवस है। कुछ लोंगों ने फॉलो किया। जन्मदिन की बधाई का सन्देश डाल दिया। वह चलता रहा। दुनिया जहान के आभासी मित्रों सहित स्थानीय पड़ौसियों, मित्रों ने भी व्हाट्सएप, फेस बुक पर शुभकामनाएं दी। पर मेरे लिए चिंतन का कारण यह बना कि फेसबुक या व्हाटसप पर बधाई देने वाले स्थानीय व्यक्तियों के सामने से मैं गुजरा, किसी से बातचीत भी की, पर कोई माई का लाल व्यक्तिगत रूप से जन्मदिन की बधाई नहीं दे पाया, जैसे उसे कुछ मालूम ही नहीं। जब व्यक्ति आपके सामने होते हुए भी आप अपने मुंह से एक शब्द नहीं बोल सकते, और मोबाइल पर साइबर दुनिया के माध्यम से अपनी भावनाएं व्यक्त कर रहे हो तो व्यक्तिश: मिलने पर क्यों नहीं बोल पाते। यही शुभकामनाएं प्रत्यक्ष मिलने पर तुरन्त दी जाए तो दोनों की प्रसन्नता कई गुना बढ़ जाएगी और रिश्तों में एक अपनापन, आत्मीयता और समझ बढ़ेगी।
मेरे दिमाग में सवाल कौंधते हैं कि क्या पिछले दो दसकों के दौरान डिजिटल दुनिया हर आम व खास व्यक्ति के जीवन पर इतना हावी हो गई है कि हमारी हंसी, खुशियां, संवेदनाएं, भावनाएं यहां तक कि आत्मीय रिश्ते तक खोते जा रहे हैं। आज जिधर देखो, परिवार है पर प्यार नहीं, समृद्धि है पर शांति नहीं, इंसान है पर इंसानियत नहीं। आम आदमी अपनी पहचान को खोता जा रहा है । एक ही घर मे रहते हुए प्रेम से मिलना और बातचीत करना दो दूर, आपस शिष्टतावश झांकते भी नहीं हैं। वह संस्कृति जाने कहाँ खो गई है जब परिवार के बड़े, बूढे, बच्चे रोज एक साथ बैठ कर बतियाते थे ,साथ बैठकर भोजन करते थे। समय -समय पर मित्रों के यहां भी जाना -आना होता रहता था। खूब आनन्द और उल्लास के पल होते थे। आज तो माँ भी डिजिटल होती जा रही है। दूसरी मंजिल पर अपने कमरे में पढ़ रहे बच्चे को खाना खाने के लिए आवाज नहीं देगी, मोबाइल पर मैसेज करेगी, ‘नीचे आजाओ, खाना तैयार है।’ मुझे याद है संवत्सरी पर्व पर हम गाँव के सभी परिवारों में ‘क्षमायाचना’ करने के लिए खुशी और आनन्द से घर -घर मे जाते थे। दीपावली हो या नववर्ष ‘अभिवादन’ की यही परम्परा कायम थी। आज तो यह हालत है कि न किसी के घर जाना, न किसी से व्यक्तिशः अभिवादन करना रह गया है। सब कुछ मोबाइल पर कर लिया जाता है। यह कैसी विडंबना भरी बात है कि आंखों के होते हुए भी आज आदमी अंधा बनता जा रहा है। वह जीवन का मूल्यांकन आचार, विचार, व्ययवहार से नहीं, लाइक, कॉमेंट, मेसेंजर, मेसेज और डिजिटल दुनिया की तमाम गजेट्स में तलाश रहा है। व्यक्तियों ने आपस मे मुलाकत करना जैसे छोड़ ही दिया है। लगता है जीवन मे कम हो रही है प्रेम की यह मिठास हमें संस्कारहीनता के किस गर्त में ले जाकर छोड़ेगी।
हमारा एक मित्र लगभग दो घण्टे हमारे साथ था । इधर-उधर की की खूब बातें हुईं। घर जाते ही उसने व्हाट्सएप पर सन्देश किया कि, ‘कल सुबह का भोजन आपको हमारे यहीं पर करना है, पोते के जन्म दिवस के मौके पर छोटा-सा आयोजन रखा है।’ सच, बहुत बुरा लगा मुझे। मित्र जब प्रत्यक्ष मिला तब भी तो यह निमंत्रण दे सकता था। बात बहुत छोटी – सी लगती है, पर भीतर तक कचोटती है। ऐसी कई घटनाएं आप सबके साथ होती ही रहती है। ‘समय नहीं मिलता’ कितनी ही बार ये शब्द, हम दूसरों को बोलते हैं और कितनी ही बार दूसरे हमको। क्या वाकई समय नहीं मिलता ? सच यह भी तो है कि जिनसे हम मिलना चाहते हैं, बात करना चाहते हैं, कोशिश करने की बजाय, ‘चलो, मैसेज कर दूंगा’ का विचार आते ही मुलाकात करने या बात करने का कार्यक्रम तुरन्त निरस्त। अब हमें यह तय करना होगा कि किसी के साथ अपना समय कैसे बिताएंगे ? वरना हम यूं ही व्यस्त बने रहेंगे और रिश्ते पीछे छूटते जाएंगे। जिस तेजी से समय बदल रहा है और डिजिटल दुनियां की गिरफ्त में हम आते जा रहे हैं, इस कारण हमारी आदतों में तेजी से बदलाव आ रहे हैं और जीवन शैली अस्त-व्यस्त होती जा रही है, यह हमारी सेहत के लिए ही नहीं बल्कि हमारे विकास के लिए भी बहुत अवरोधक है और कई तरह की शारीरिक और मानसिक समस्याएं इससे पैदा हो रही है। साइबर दुनिया के खतरे बच्चों, युवाओं और कामकाजी लोगों के साथ ज्यादा है। या यों कहें कि समय का ठीक से प्रबंधन न कर पाना, जीवन को अव्यवस्थित कर रहा है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ रहा है।
मानाकि, तकनीक का साथ आज की दुनिया में वरदान की तरह है। खासकर नई पीढ़ी के लिए आज कम्यूटर और इंटरनेट खिलौनों की तरह है पर यह कहीं न कहीं दुःख का विषय भी बनता जा रहा है। जब जाने -अनजाने बच्चे इस आभासी, काल्पनिक (वर्च्युअल) दुनिया की गलत गलियों का रुख कर लेते हैं और इसकी गंदी दुनिया के मायाजाल में उलझते चले जाते हैं। उसे ही अपना जीवन आदर्श मानने लगते हैं। थोड़ी सी सावधानी जीवन बर्बाद कर सकती हैं। असल मे तकनीक इंसान के लिए जितनी सुविधाजनक है उतना ही उसके गलत इस्तेमाल से मिलने वाली भयंकर परेशानियां भी हैं। बच्चे बिना इसके परिणाम की चिंता किये आगे बढ़ता चला जाते हैं। निरन्तर डिजिटल दुनिया के संपर्क में रहने के कारण बच्चे अकेलेपन, अवसाद के शिकार हो, ऐकाकी, चिड़चिड़े, आक्रोशी व हिंसक बनते जा रहे हैं। उनमें संस्कारहीनता एवम संवादहीनता बलवती होती जाती है। बच्चे ही नहीं परिवार के हर सदस्य इस डिजिटल दुनिया मे प्रभावित हो रहे है।
क्या यह विरोधाभास नहीं लगता कि एक और तो हम अपनी गौरवशाली संस्कृति का गौरवगान करते अघाते नहीं और दूसरी ओर सच्चाई यह है कि आभासी दुनिया के चक्रव्यूह में उलझकर संस्कार एवम संस्कृति की बुनियाद को बदसूरती देने वाले हम ही वे लोग हैं जिन्हें राम, बुद्ध और महावीर जैसे महानात्माओं के संस्कारों की विरासत मिली हुई है, जो हमारे जीवन मे पनप रहे हर गलत संस्कार और बेहूदा पाश्चात्य संस्कृति को लक्ष्मण रेखा देने का प्रयास और पुरुषार्थ कर रहे हैं। यहां मैं हमारे शिक्षकों, अभिभावकों , पालकों से कहना चाहूंगा कि हमने अपनी अतीत की गौरवशाली परम्परा, संस्कृति को वर्तमान में अंगीकार नहीं किया तो हमारी करतूतें हमारी शालीन संस्कृति और शांत व सुकून भरे जीवन को लील जाएगी, तब इस दूषित संस्कृति में पलने वाली नई पीढ़ी में न राम जनमेगा, न महावीर ,बुद्ध ! हम जितने आधुनिक हो रहे हैं, हमारे नैतिक मूल्य उतने ही गिरते जा रहे हैं हमारे महानगर इस गिरावट की हदें पार कर रहे हैं। इसकी निष्पत्ति न केवल भयावह बल्कि चिंताजनक होती जा रही है। हम वसुधैव कुटुम्बकम की अपनी प्राचीन सांस्कृतिक गौरवशाली परम्परा से दूर चले जा रहे हैं । परिवर्तन अनिवार्य है, लेकिन उसे दिशा देने के लिए प्रबुद्ध हस्तक्षेप भी जरूरी है। परिवार के सदस्यों , रिश्तेदार और निकट मित्रों में आपस में संवाद , मेल – मुलाकात होना बहुत जरूरी है। हर दिन कुछ घण्टे सप्ताह में पूरे एक दिन टी. वी.,मोबाईल, कम्यूटर एवम इंटरनेट का उपयोग बन्द रखने की आदत बनाइये ताकि तेजी से पनप रही संवादहीनता की संस्कृति पर लगाम लग सकें। ताकि हम आधुनिकता, विज्ञान के साथ रहते हुए भी जीवन मे कम हो रही प्रेम की मिठास को फिर से जीवंत कर सकें, सहेज सकें।
【 राजकुमार जैन ‘राजन’,चित्रा प्रकाशन के संपादक एवं सु-प्रसिद्ध लेखक हैं ‘छत्तीसगढ़ आसपास’ के लिए उनकी दूसरी कृति ‘जीवन में कम क्यों हो रही प्रेम की मिठास’,प्रस्तुत है पाठक/वीवर्स अपनी प्रतिक्रिया से अवगत करायें,-संपादक ]