हमारे वृद्ध-हमारा गौरव – तेज़राम शाक्य
पिताजी का फोन कुछ दिन पूर्व आया था, वह कुछ विचलित लग रहे थे। मुझसे बोले बेटे! कब आ रहे हो, नातियों को भी देखने की इच्छा थी, बहुत दिन हो गए मैंने तुम्हें भी गले से नहीं लगाया, ऐसी ही प्यार भरी बातें सुनकर मैंने अनसुनी कर दी। यहां पर मेरी अपनी परेशानियों कोई कम न थी, जिनमें मैं उलझा हुआ था। इस कारण मैंने उनसे बोला पापा! मैं अभी तो नहीं आ पाऊंगा, हां मगर एक माह बाद छुट्टियों में जरूर हम लोग पहुंचेंगे। मुझे क्या मालूम था कि उनके साथ का यह वार्तालाप अंतिम वार्तालाप था। आज जब भाई का फोन आया और उसने रुंधे गले से कहा कि भैया! पापा हमारे बीच नहीं रहे, तो मैं सन्न रह गया। तुरंत मुझे पिछले फोन की एक एक बात याद आने लगी। मैं जानता हूं कि पिताजी मुझे दिलो जान से प्यार करते थे। परंतु अंतिम समय में उनके पास मेरा ना रह पाना मुझे आत्मग्लानि का कारण बन रहा था। मुझे पश्चाताप हो रहा था कि उनके बुलाने के बावजूद मैं तुरंत उनके पास क्यों नहीं गया?
मेरे पिताजी बहुत मेहनती थे, वह 10 घंटे काम करने के बाद रात में 10:00 बजे घर आते थे, और मुझे रोज सुबह उठकर तैयार करना और स्कूल तक भेजना उनका रोज का काम था। जब मैं बड़ा हो गया तो मुझे क्रिकेट सिखाने के लिए रोज ग्राउंड तक लाने ले जाने का काम उन्होंने बखूबी निभाया। उसके बाद मेरा जब क्रिकेट में सिलेक्शन हो गया तो 3 माह के कैंप में घर से 10 किलोमीटर रोज मुझे ले जाने का काम वह करते थे, और भी बहुत सारी बातें मेरे सामने एक के बाद एक आ रही थी।
वास्तव में हम अपने बुजुर्गों के प्रति जब वह रहते हैं, उदासीन रहते हैं, उनकी कद्र नहीं करते, उनको अकेला छोड़ देते हैं, उनसे बात करने की भी हमें फुर्सत नहीं मिलती। उनको समय से खाना पीना मिल रहा है कि नहीं इसकी परवाह नहीं करते, उनकी अपनी क्या इच्छाएं हैं उनको जानने की भी कोशिश नहीं करते।दवाई समय से खा रहे हैं या नहीं इसकी भी चिंता हम नहीं करते। इस प्रकार से उनका यह उपेक्षित जीवन उन्हें बोझिल लगने लगता है। इस प्रकार कष्टपूर्ण जीवन जीने के लिए वह मजबूर हो जाते हैं। हमारा दायित्व है कि हम प्रतिदिन 10 मिनट उन्हें अवश्य दें उनकी तकलीफ पूछे उन्हें प्यार करें, और उनकी जरूरतों को पूरा करें। इतने में ही उनके चेहरे पर मुस्कान बिखरने लगती है। हमें यह बिल्कुल नहीं भूलना चाहिए कि एक दिन हमें भी उन्हीं की स्थिति में आना है, तब फिर हमारे साथ ऐसा व्यवहार हो तो क्या वह हमें गवारा होगा?
हमारे “बुजुर्ग” हमारी अमानत होते हैं, हमारी शान होते हैं, हमारी पहचान होते है। इसलिए उन्हें कोई तकलीफ ना हो, वह हमेशा स्वस्थ रहें, प्रसन्न चित्त रहें इस बात का ध्यान रखना हमारा दायित्व बन पड़ता है। उन्होंने हमारे साथ जो एहसान किए, हमारी परवरिश की, हमें पढ़ाया लिखाया योग्य बनाया तो हमारी भी उनके प्रति जिम्मेवारी बन पड़ती है, जिसे हमें बखूबी निभाना आना चाहिए।
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