■संत गाडगे महाराज या गाडगे बाबा [ जन्म 23 फ़रवरी 1876 : निधन 20 दिसम्बर 1956. ]
[ प्रस्तुत चित्र 1949 का है, जिसमें संत गाडगे बाबा बीच में हैं. उनके बाई ओर बाबासाहेब अंबेडकर एवं दाहिनी ओर कर्मवीर भाऊराव पाटिल हैं. ]
■वो हाथों में टूटा मटका लेकर लोगों से पैसा मांगकर स्कूल बनाता था.
■महाराष्ट्र के अमरावती विश्वद्यालय का नामकरण एक ऐसे वयक्ति के नाम पर किया गया, जो स्वयं अनपढ़ था.
■संत गाडगे महाराज जी वास्तविक जन सेवक थे,वे जनता की भाषा में बात करते थे.
■पूरी जानकारी के लिए इस लेख को अवश्य पढ़ें.
-शरद कोकास
[ दुर्ग-छत्तीसगढ़ ]
अगर आपको पता चले कि एक अनपढ़ व्यक्ति के नाम से एक विश्वविद्यालय का नामकरण किया गया तो आपकी पहली प्रतिक्रिया यही होगी कि अवश्य इसमें कोई राजनीतिक स्वार्थ या चाल होगी । ऐसा सोचना स्वाभाविक है । आजकल यही होता है । लेकिन महाराष्ट्र के अमरावती विश्वविद्यालय का नामकरण एक ऐसे व्यक्ति के नाम पर किया गया है जो स्वयं अनपढ़ था । इसका कारण यह है कि वह व्यक्ति वास्तविक जन सेवक था, वह जनता की भाषा में बात करता था । वह प्रवचन करता था लेकिन उसका उद्देश्य और दृष्टिकोण धार्मिक नहीं बल्कि वैज्ञानिक था लेकिन उसे संत कहा जाता था । आपको यह जानकर भी आश्चर्य होगा कि संत कहलाने वाला यह व्यक्ति उन दिनों के धार्मिक के अर्थ में धार्मिक भी नहीं था । उनका नाम है संत गाड़गे महाराज या गाड़गे बाबा ।
गाड़गे बाबा लोगों के बीच घूम घूम कर सामाजिक कार्य करते थे । उनका अपना अलग ढंग था । वे पैदल पैदल हर गाँव में जाते और पहुँचते ही नलियाँ साफ़ करने लगते या झाड़ू हाथ में लेकर सड़कों की गन्दगी साफ़ करने लग जाते । फिर लोग भी उनकी मदद के लिए आते । इस बहाने लोगों को इकठ्ठा कर अपने कीर्तन या प्रवचन द्वारा लोगों के दिमाग़ में जमी अन्धविश्वास , कुप्रथा, ईश्वर पर आश्रित रहने की भावना , चमत्कारों में आस्था, व्यर्थ के कर्मकाण्ड , मन्नत मानना , भाग्यवाद और जाति के आधार पर ऊँच नीच व छुआछूत की भावना जैसी गन्दगी वे साफ़ करते । अपने ज़माने के वे एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण संपन्न व्यक्ति थे ।
संत बाबा गाडगे महाराज का जन्म 23 फरवरी 1876 को हुआ और उनका निधन 20 दिसंबर 1956 को हुआ । उनका वास्तविक नाम डेंगूजी झिन्गरुजी जानोरकर था । लेकिन वे अपने हाथों में एक टूटे हुए मटके का टुकड़ा या ‘गाड़गा’ लिए रहते इसलिए उनके नाम गाड़गे बाबा हो गया । उन्होंने जीवन भर गांव के लोगों से पैसा इकठ्ठा कर स्कूल ,कॉलेज धर्मशालाएँ बनाई जिसमे लोगों की आर्थिक सहायता से भोजन की व्यवस्था भी की लेकिन उन्होंने एक भी धार्मिक स्थल नहीं बनाया । उन्होंने एक एक पैसे का हिसाब रखा और घर के किसी व्यक्ति को भी कभी उसका एक हिस्सा भी नहीं दिया । वे लोगों का पैसा लोगों के लिए ही खर्च करते थे ।
वे गाँव गाँव पैदल पैदल घूमते थे । महाराष्ट में उनके निवास अमरावती के आसपास जत्राओं में यानि मेलों में वे जाते और लोगों से सवाल करते । उनकी कीर्तन सभाओं में हजारों की भीड़ आती । वे फिर उन्हें बताते कि ईश्वर किसी पत्थर की मूरत में नहीं है , मंदिर में नहीं है, बल्कि इंसान के भीतर है । इसलिए मनुष्य की सेवा करो ।
लोगों को संबोधन करने की उनकी अपनी शैली थी । वे लोगों से पूछते कि अगर कोई ऊँची जाति का है तो उसके चार हाथ क्यों नहीं हैं ? भगवान अगर पत्थर की मूरत में है तो आप उसे नहलाते , खिलाते पिलाते और मंदिर में प्रसाद रखकर उसे कुत्ते से बचाने के लिए लाठी लिए क्यों बैठे रहते हो? वह अपने कार्य खुद क्यों नहीं करता ? अपनी रक्षा स्वयं क्यों नहीं कर सकता ? अगर पूजा करने, कथा करने से डूबी हुई नैया ऊपर आ जाती है तो सैकड़ों नावें और जहाज जो समुद्र में डूब गए हैं वे ऊपर क्यों नहीं आ जाते ? चमत्कार अगर सच है तो उन से दुनिया सुखी क्यों नहीं हो जाती ? अगर श्राद्ध पक्ष में मन्त्र पढ़ने से स्वर्ग के पुरखों तक भोजन पहुँच सकता है तो हाथों से उलीचने पर नदी का पाने मेरे चार सौ मील दूर स्थित खेतों तक क्यों नहीं पहुँच सकता ?
इस तरह अपने जीवन के अंतिम समय तक वे लोगों के बीच वैज्ञानिक चेतना के प्रसार के लिए कार्य करते रहे उनके प्रयासों से लोग न केवल विदेशियों की गुलामी से बल्कि स्वयं की मानसिक गुलामी से मुक्ति के लिए भी प्रयत्नशील हुए । वे कबीर , नानक, तुकाराम और नामदेव की परम्परा के संत थे जो नास्तिक नहीं थे लेकिन तार्किक थे । अखिल भारतीय अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के संस्थापक प्रो. श्याम मानव बताते हैं कि विडम्बना यह है कि जो गाडगे बाबा जीवन भर मंदिरों के निर्माण का विरोध करते रहे लोगों ने उन्ही के मंदिर बना दिए और उनके नाम से चमत्कार जोड़ दिए । काश आजकल के संतों और उनके अनुयायियों का भी ऐसा ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण और चरित्र होता ।
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