महिला दिवस पर विशेष
■दाऊ रामचन्द्र देशमुख कृत
‘चंदैनी-गोंदा’ के शुरुआती दौर की गायिका- श्रीमती संतोष झांझी.
-आलेख,अरुण कुमार निगम
जिन्हें “मैं-मैं-मैं-मैं” का राग अलापना नहीं आता और जो अपने आपको जतलाना नहीं जानते, समय के साथ वे सामान्यतः हाशिये पर आ जाते हैं किंतु सच्चे कला-प्रेमियों के स्मृति पटल के मुख-पृष्ठ पर हमेशा दैदीप्यमान रहते हैं। दाऊ रामचंद्र देशमुख कृत “चंदैनी-गोंदा” के शुरुआती दौर की गायिका “श्रीमती संतोष झाँझी” ऐसी ही विलक्षण प्रतिभा की धनी हैं जिन्होंने कभी आत्म-मुग्धता में “मैं-मैं-मैं-मैं” का राग नहीं अलापा। नयी पीढ़ी के लिए वे भले ही हाशिये पर दिखायी देती हैं किंतु सच्चे कला-प्रेमियों के दिलों पर अपनी प्रतिभा के दम-खम पर आज भी राज कर रही हैं।
श्रीमती संतोष झाँझी का जन्म पंजाब मे नवांशहर कै पास भीण में लगभग पचहत्तर वर्ष पूर्व हुआ था। वैसे इनकी मातृभाषा पंजाबी है किंतु प्रारंभिक शिक्षा कलकत्ता में होने के कारण वे बंगाली भाषा को भी मातृभाषा के समकक्ष मानती हैं। मारवाड़ी विद्यालय में अध्ययन के कारण राजस्थानी भाषा पर पूरा अधिकार रखती हैं तो सभी अध्यापक बिहारी होने के कारण बिहारी (भोजपुरी) भी उन्हें अच्छी तरह से आती है। झाँझी जी के पिताजी उर्दू में कविता, गीत और कव्वालियाँ लिखा करते थे तो वे उर्दू से भी भलीभाँति परिचित रहीं । श्रीमती झाँझी आठ भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं इसीलिए पारिवारिक-प्रबन्धन का गुण उनमें बचपन से ही विद्यमान है। शुरुआती आर्थिक झंझावातों ने उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होना सिखा दिया।
छत्तीसगढ़ के भिलाई में झांझी साहब 1960 में और श्रीमती झाँझी 1961 मे आयीं। 1968 से उन्होंने कवि सम्मेलनों मे जाना शुरू किया। उन्होंने कविसम्मेलन के मंचों पर खड़े होकर कविता पढ़ने की परंपरा की शुरुआत की। उस जमाने में कवि खड़े होकर और कवयित्रियाँ बैठकर पढ़ती थीं। चुटकुले बाजी से दूर रहकर झाँझी जी ने लक्ष्मण मस्तुरिया और जीवन यदु राही की तरह सीधे नमस्कार के बाद बिना किसी भूमिका के शालीनता से कविता पढ़ा करती थीं। उन्होंने मंचों पर श्रृंगार की कविताएँ नहीं पढ़ीं। वे जिन्दगी के उतार-चढ़ाव में जो भोगा, वो लिखा और उसे ही मंच पर पढ़ा फिर भी अखिल भारतीय कविसम्मेलन के मंचों ने उन्हें स्वीकारा। उन्होंने अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों के मंचों में गोपालदास “नीरज”, बालकवि बैरागी, हुल्लड़ मुरादाबादी, सुरेन्द्र शर्मा, माणिक वर्मा, निर्भय हाथरसी, काका हाथरसी, अग्निवेश, रामरिख मनहर, मनोहर मनोज, सांड नरसिंह पुरी आदि कवियों के साथ कविताएँ पढ़ीं । आंचलिक मंचों पर लक्ष्मण मस्तुरिया, पवन दीवान, कृष्णा रंजन, बसंत दीवान, रवि श्रीवास्तव, जीवन यदु राही, दानेश्वर शर्मा आदि के साथ रचनाओं का पाठ किया। छोटे-बड़े मंचों की मिलाकर 2500 से अधिक कविसम्मेलन के मंचों पर वे कविताएँ और गजलें पढ़ चुकी हैं। श्रीमती संतोष झांझी 1968 से नाटकों से भी जुड़ीं। वे थियेटर क्लब की तरफ से पंजाबी गीतों का कार्यक्रम, पंजाबी नाटक करती थीं।। बहुत बार भिलाई स्टील प्लांट की तरफ से और भिलाई महिला समाज की तरफ से भी लगातार गायिका बनी रही।
एक चर्चा के दौरान उन्होंने बताया – “चन्दैनी गोंदा के लिये आदरणीय श्री दानेश्वर शर्मा जी, दाऊ जी श्री रामचन्द्र देशमुख को लेकर हमारे घर (भिलाई) आये थे। दाऊजी ने एक गीत केवल पढ़ने के लिये मुझे दिया। मुझे कोई परेशानी नही हुई और दाऊ जी ने मुझे चंदैनी गोंदा के मंच पर छत्तीसगढ़ी भाषा में गीत गाने का अवसर प्रदान कर दिया। चंदैनी गोंदा जैसे विराट मंच से जुड़ने का श्रेय आदरणीय दानेश्वर शर्मा जी को जाता है”।
श्रीमती संतोष झाँझी ने चंदैनी गोंदा में पहला गीत “सुनके मोर पठौनी परोसिन” गाया था। तत्पश्चात “अब मोला जान दे संगवारी”, “झन आंजबे टूरी आँखी मा काजर, बिन बरसे रेंग देही करइया बादर, छूट जाही ओ परान”, मोर कुरिया सुन्ना रे” और “पिंजरा मं सोचत हे मैना” गीतों को स्वर दिया। इन गीतों के अलावा कुछ गीतों के कोरस में भी उन्होंने अपनी आवाज बुलंद की। चंदैनी गोंदा में झाँझी जी ने केवल भैयालाल हेड़ाऊ जी के साथ युगल गीत गाये। वे बताती है – “चन्दैनी गोंदा के प्रथम प्रदर्शन (07 नवम्बर 1971) में जहाँ तक मुझे याद है मंजुला बैनर्जी रविशंकर शुक्ल, उनकी बड़ी बेटी, लीना पॉल,, ज्योत्सना रथ, संगीता चौबे, साधना यादव, भैय्यालाल हेड़ऊ मेरे साथ थे। चंदैनी गोंदा के प्रथम प्रदर्शन को तो अब पचास साल का बहुत लंबा समय हो गया।
श्रीमती संतोष झाँझी ने करीब बीस साल से अधिक समय तक आकाशवाणी रायपुर के लोकरंजनी में छत्तीसगढ़ी गीत गाये जिसमें उन्होंने लक्ष्मण मस्तुरिहा, रामेश्वर वैष्णव, रविशंकर शुक्ल, दानेश्वर शर्मा, विमल पाठक, जीवन यदु राही, मुकुन्द कौशल के गीतों के अलावा भी बहुत से गीतकारों के गीतों को स्वर प्रदान किया। श्रीमती संतोष झांझी के सरगम रिकार्ड कम्पनी, बनारस से चार छत्तीसगढ़ी गीतों के ग्रामोफोन रिकार्ड बनें । ये गीत श्री दानेश्वर शर्मा जी और श्री रविशंकर शुक्ला जी के लिखे गीत थे। कुछ समय दौनापान तथा एक अन्य संस्था में भी कुछ समय तक गीत गाये। स्वभाव से सरल होने के कारण वे किसी भी परिचित के आग्रह को मना नहीं कर पाती थीं।
सत्तर के दशक की शुरुआत से ही वे बहुत व्यस्त रहती थीं। उनके बच्चे छोटे थे। नाटकों की रिहर्सल, कभी शिमला, कभी बरेली, कभी भिलाई के कम्पीटीशन, साथ ही अखिल भारतीय कविसम्मेलनों में कभी कलकत्ता, कभी बम्बई, कभी बैंगलोर जैसे अनेक स्थानों पर जाना पड़ता था। अतः चार-पाँच प्रदर्शनों के पश्चात उन्हें चंदैनी गोंदा के मंच को अलविदा कहना पड़ा। श्रीमती संतोष झाँझी आज भी अनेक विधाओं में साहित्य की साधना कर रहीं हैं। उनकी आवाज आज भी सधी हुई है। हम उनके दीर्घायु होने की कामना करते हैं।
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