आलेख- विद्या गुप्ता
सार्थक समय की निर्रथक यात्रा हासिल लाया- ‘शून्य’.
-विद्या गुप्ता
[ दुर्ग-छत्तीसगढ़ ]
सार्थक समय की निरर्थक यात्रा हासिल लाया…..” शून्य ‘
समय नहीं है…..!!
किसी के पास समय नहीं है…..!! मंत्री से संत्री तक, बड़े आदमी से छोटे आदमी तक….. यहां तक कि भिखारी के पास भी समय नहीं है।
दुनिया दौड़ रही है….. सब दौड़ रहे हैं लेकिन कहां….?? दौड़ कर कहां जाना है….? दौड़ का उद्देश क्या है…? कौन सी मंजिल है….?
बस दौड़ना है, दौड़ते रहो, दौड़ते रहो….. और जिस दिन थक कर गिर जाओ, उस दिन आप की दौड़ खत्म…..!!
हजारों को दौड़ते हुए देख रहे हैं लेकिन एक बार हमनें स्वयं से नहीं पूछा कि, हम क्यों दौड़ रहे हैं। खाना जीवन की प्राथमिक आवश्यकता लेकिन देख रहे हैं खाना थाली में परोसा हुआ है मगर खाने का समय नहीं है…. नींद आंखों में है लेकिन, सोने का समय नहीं है….. थकान से चूर शरीर को आराम की आवश्यकता है लेकिन आदमी के पास आराम का समय नहीं है।किस चीज को पाने के लिए थके शरीर को दौड़ाये जा रहा है।
यद्यपि इंसान और जानवर में फर्क करने वाला सबसे महत्वपूर्ण आयाम है इंसान का इंसान होना
रोटी कपड़ा और मकान के बाद पाने के लिए,- कलाकार कैनवास के लिए समय चाहता है,….. तोकोई कला के दूसरे छोर पर, नृत्य गायन को अपना लक्ष्य बना लेता है….. तो कोई चित्रकारी को या किसी खोज, स्पर्धा या प्रतियोगिता को जीवन का लक्ष्य मान लेते हैं, अगर ऐसा नहीं होता तो धरती आकाश अंतरिक्ष के कई रहस्य, रहस्य ही रह जाते…. और ये मुकाम जरूरी भी है, क्योंकि खाने सोने का काम तो जानवर भी कर लेते हैं उनसे हम इन्हीं खोज और उपलब्धि में अलग होते हैं। और यह उपलब्धियां निश्चित रूप से मन को सुख सुकून और शांति देती है।
लेकिन……!! उनका क्या कहा जाए जिनके सामने सिर्फ और सिर्फ एक लक्ष्य है पैसे कमाना…..!! जायस नाजायज तरीकों से, गलत रास्तों से जीवन को उलझन में , कांटों में घसीटते हुए वर्तमान को नरक बना लेते हैं । जिनके पास अपने कमाए हुए पैसे का उपभोग का समय भी नहीं है…..
बस प्रश्नों के घेरे में ऐसे ही लोग आते हैं जिन्होंने जीवन के मूल्य को सिर्फ पैसे के तौल पर तौल कर स्वयं को नगण्य मान लिया।
यद्यपि यह फैसला भी व्यक्ति का अपना फैसला है लेकिन एक व्यक्ति के गलत फैसले से उसका परिवार, समाज और जीवन चक्र प्रभावित होता है…, इंसानी जीवन के मायने बदलने लगते हैं।…. जीवन ज्यादा विषैला और कठिन लगने लगता है….जब एक व्यक्ति की दौड़, उसकी स्पर्धा हजारों लोगों को मिस गाइड करती है। एक स्थिति यह भी बनती है पैसे की इस दौड़ में हजारों का हिस्सा एक व्यक्ति के हाथ में आ जाता है….. और हजारों अभाव में जी कर कुंठा और संत्रास को भोगते हैं। इतना ही नहीं इस दौड़ में कई अपराधों की शाखाएं भी आ जुड़ती है।
आदमी का मन स्वार्थ अहंकार और स्वयं को खास या महान साबित करने की धुन में दौड़ते हुए हजारों अपराध करने से भी नहीं चूकते। लेकिन इसकी अंतिम परिणीति क्या होती हैं…..??
प्रकृति को आहत करने वाला व्यक्ति अंततः स्वयं भी जीवन के सुखों से वंचित हो जाता है। शुगर, हार्ट, बीपी, किडनी, लीवर जैसे सारे ईमानदार साथी आदमी की हवस का शिकार होकर समय से पहले ही लाचार हो जाते हैं।एक समय बाद यह भी देखा गया है कि वह अपाहिज सा अपने ही जीवन को सढ़ते, दूसरों की दया और सेवा पर पलते हुए, गुजर चुके अपने समय को लाचार आंखों से देखता है। ….
खाने की बहुत इच्छाएं शेष रह गई,….. लेकिन शुगर की बंदीशों ने जकड़ लिया….. पहाड़ों की जंगलों की मस्ती भरी यात्राओं का स्वप्न अब ब्लड प्रेशर और हार्ट की गिरफ्त में दबकर रह गया… जिन विशाल बिल्डिंग बैंगलों को तैयार करवाने मैं नैतिक अनैतिक सब को पार कर दिया था अब लाचार शरीर अपने कमरे में बंद अपने बिस्तर पर खांसते हुए अपने उन ताजमहलों को देखता है…..
परिवार के साथ बिताए जाने वाले समय को पैसों की दौड़ में खत्म कर दिया…. अब भरपूर समय है…लेकिन परिवार वाले साथ होकर भी कटते और बचते हैं…. सेवा के बादले असंतोष वितृष्णा और शिकायतों से वे अपने समय को बचाना चाहते हैं।
बीमारी, कमजोरी, लाचारी और पछतावे से भरा आदमी बहुत कुछ करना चाहता है लेकिन तब तक सारे रास्ते बंद हो चुके रहते हैं।
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