आज़ संतोष झांझी के जन्मदिवस पर विशेष- 76 वर्ष की युवा, ऊर्जावान, सौंदर्य व बुद्धि की प्रतीक कवयित्री, उपन्यासकार, कहानीकार, नाटककार, गीतकार, ग़ज़लकार- संतोष झांझी.
●आलेख-
-डॉ. सोनाली चक्रवर्ती
76 वर्ष की युवा,ऊर्जावान ,सौंदर्य व बुद्धि की प्रतीक कवयित्री, उपन्यासकार, कहानीकार, नाटककार, गीतकार,ग़ज़लकार को मेरा प्रणाम।
मैं उनसे हमेशा कहती हूं मासी 1 अप्रैल को पैदा होकर आप ने सब को बुद्धू बना दिया।
उस जमाने में एक लड़की जो नहीं सोच सकती थी आपने वह सब किया।
सबको लगा लड़की है सिर्फ घर के काम करेगी तब आपने कविताएं लिखी।
सबको लगा कम उम्र में शादी करवा दो गृहस्थी और बच्चों में सारी जिंदगी गुजार देगी लेकिन आपने जीवन और प्रकृति में से गीत चुने,ग़ज़लें लिखीं, कहानियां बनाई ,नाटक रचे और अभिनय किया।
सबको लगा जीवन के इतने झंझावातों के बीच आप की प्रतिभा खो जाएगी लेकिन आपकी कविता की तलाश अभी भी जारी है ।
आप ही की कुछ पंक्तियों के साथ आपको फिर श्रद्धा भरा प्रणाम एवं जन्मदिन की शुभकामनाएं
कविता की तलाश
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सुबह सुबह जब सूरज
अपनी किरणें धरती पर लाए
साँझ पड़े हो लाल शर्म से
क्षितिज के पीछे छुप जाए
ढूंढ लिया है तुझको यही
अनलिखी मेरी कविता हो
सुबह सवेरे आसमान पे
उड़ती चिड़िया जो गाएँ
ओस की बूंदों को छू छूकर
सिहर सिहर तितली जाए
छू लेता भंवरा पराग पर
खुशबू ना छूने पाए
देख देख कर बुलबुल हँसती
डाल डाल उड़ती जाए
ढूंढ लिया है तुझको तुम
अनलिखी मेरी कविता हो
कल कल छल छल
करती नदियां
मंद मंद बहती जाए
ज्योँ हिचकी ली हो नदिया ने मछली यूँ डुबकी खाएँ
द्वार चढ़े सागर को
तब जब चंद्रकिरण
नभ पर छाएं
बेचैनी से तड़प तड़प कर
पाने को उछला जाए
ढूंढ लिया है तुझको वही
अनलिखी कविता हो
नभ को बिजली की कटार
जब चीर चमककर छा जाए पावस की बूंदे जब तन से
आ मन पर भी छा जाए
नाच उठे बूंदों की ताल पर
मोर पंख जब फैलाए
बिरहन की आंखों की बदली
जब आंसू बन झर जाए
नन्हीं-नन्हीं मुस्कानों में लिखी हुई कविता हो
-संतोष झांझी
पाँच साल-पांच दिन
संतोष झांझी जी से मेरी मुलाकात कला मंदिर में हुई थी। उन्होंने मुझे और मैंने उन्हें दूर से देखा था और उनके खूबसूरत व्यक्तित्व को मैंने मन ही मन सराहा था ।बाद में पता चला वे भी मुझे देख कर किसी से मेरा नाम पूछ रही थीं।
एक दूसरे के बीच में एक संबंध बनने की शुरुआत हो चुकी थी ।उसके बाद हम कई मंचों पर ,कई कार्यक्रमों में मिलते रहे ।आत्मीयता बढ़ती रही
विवाह के 15 वर्ष पश्चात जब मैंने दोबारा पढ़ाई करने की सोची, हिंदी में एम.ए. किया,अंग्रेजी माध्यम से स्नातक होने के बावजूद हिंदी मुझे बेतरह आकर्षित करती थी।
एम.ए. के बाद जब मैंने पीएचडी एंट्रेंस टेस्ट पास कर लिया तब मेरा मन था शिवानी जी शोध करने का। शिवानी जी का संपूर्ण साहित्य मुझे कंठस्थ है। बाद में गुरुजनों से विचार-विमर्श करने के बाद लगा छत्तीसगढ़ की एक लेखिका को आदरांजली दिया जाए तो कैसा रहे ?
उसके बाद मुझे कुछ सोचने की जरूरत नहीं पड़ी।
संतोष झांझी जी को मैं पढ़ ही रही थी और पढ़ क्या रही थी,,, जी रही थी।
उसके बाद शुरू हुआ हमारी नवीन मैत्री का सफर। मेरी प्रिय लेखिका के साथ दिन पर दिन रहने का सुअवसर प्राप्त होने लगा। उनके बचपन से लेकर अब तक के जीवन के कई अनछुए पहलू मेरे सामने कपड़े की थान की तरह खुलने लगे। हर थान का नया रंग,नई खुशबू।
5 सालों तक सिवाय संतोष झांझी के कुछ सोच नहीं पाती थी।
यहां तक कि कभी वे फोन करती थी किसी कार्यक्रम में चलने के लिए तो मैं कहती थी -मुझे अभी आपके ऊपर बहुत काम करना है आपके साथ चलने का समय नहीं है।”
उम्र के सारे बंधनों व व्यवधानों को तोड़ते हुए हम दोनों घंटों सहेलियों की तरह खिलखिलाती हुई ,चुटकियां लेती हुई इतनी बातें करती कि फोन रखने के बाद भी बहुत देर तक मन प्रसन्न रहता ।
जिस दिन मेरा वाइ्वा था वे मेरे साथ गई थी।
मुंबई यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ.करुणा शंकर उपाध्याय जी जैसे विद्वान वाइवा लेने आए थे। घबराहट तो थी पर खुद पर यकीन भी था।
जब मैं डाइस पर बोलने के लिए खड़ी हुई, सब ने मुझसे कहा अपनी थीसिस भी साथ में रख लो और मैंने विनम्रता से मना किया। संतोष झांझी पर लिखी मेरे थीसिस का ऐसा कोई पन्ना या अक्षर नहीं था जिसे पढ़ने के लिए मुझे देखने की जरूरत पड़े।
मैं जाने कब तक धाराप्रवाह बोलती चली गई उसके बाद मैंने खुद को रोक कर गुरु जी से कहा कि अब आप जो चाहे मुझसे पूछ सकते हैं ।
आगे का तो सब जानते हैं।
संतोष आंटी अक्सर कहती थीं-” तुम्हारी थीसिस पूरी हो जाए तो मैं गंगा नहाऊं”
और सुखद संयोग के रूप में शोधप्रबंध जमा करने के तारीख के आसपास से ऋषिकेश से एक सम्मान समारोह का आमंत्रण मिला।
प्रबंध जमा करने के अगले दिन मैं और आंटी जी हरिद्वार, ऋषिकेश की यात्रा पर निकल गए और पूरे रास्ते सबकी प्रश्नों का जवाब देते गए कि आप दोनों अकेले हैं?
जी हां हम मां बेटी की जोड़ी को सब की निगाहों का जवाब देना पड़ा क्योंकि कोई पुरुष साथी साथ में नहीं था।
हम दोनों अकेले थे और बहुत खुश थे।
यह सोच पता नहीं कब बदलेगी।
हम दोनों ने अपना अपना काम बांट लिया था। आंटी की देखभाल का सारा जिम्मा मेरा और मेरी देखभाल का सारा जिम्मा आंटी का ।
उनका बिस्तर लगाना उनका सामान ठीक करना मैं अपनी देखरेख में करती थी और मुझे सारी दुनिया की आंखों से बचाने का काम उनका। कोई मेरी तरफ देख भी ले तो वह सार्वजनिक रूप से डांट देती थी कि इधर क्यों देख रहे हो ?
अब बताइए ऐसे स्नेह पूर्ण छत्रछाया में भला कौन मेरा क्या बिगाड़ सकता था?
मैं उनकी जिजीविषा, जिंदादिली और जीवन के प्रति सकारात्मक रुख देखकर हैरान थी ।
स्टेशन पर नेट ना चलने पर अनजान व्यक्ति से भी स्टेशन का पासवर्ड पूछ कर व्हाट्सएप चलाने की विधि पूछ लेना हो या किसी से भी आने जाने का रास्ता पूछ लेना या अपनी चेष्टाओं से स्मार्ट फोन चलाने की सारी विधियों को सीख लेना किसी भी काम में वे पीछे नहीं थी ।
हरिद्वार हम जिस दिन पहुंचे वह सावन पूर्णिमा का दिन था। कांवरियों के साथ शिव भक्ति में हरिद्वार नहाया हुआ था। वैसा अनुपम दृश्य मैंने पहले नहीं देखा था।
इसके विषय में मैं कभी अलग से लिखूंगी ।
हम दोनों एक साथ घूमे फिरे, खाया पिया, शॉपिंग की, ऋषिकेश गए ,सम्मान समारोह में सम्मान ग्रहण किया और भिलाई वापस आए ।
उनकी बेटियां उनके साथ लगातार संपर्क में रहीं।
हर जगह बिना परिचय के लोगों ने हमें मां बेटी समझा इसकी खुशी हमें अलग थी। लोगों ने यह भी कहा बिल्कुल चेहरा मिलता है हम तो देखते ही समझ गए और हमने कहीं खंडन नहीं किया ।
यह सारी तो हुई दोस्ती की बातें। मैं आपकी महानता से पल-पल नतमस्तक होती गई। इतनी महान लेखिका संभवतः छत्तीसगढ़ की पहली सेलिब्रिटी स्टार होने का गर्व भी आपको प्राप्त है लेकिन रंच मात्र अहंकार नहीं। फलदार वृक्ष कैसे झुका रहता है आप इसकी जीवंत उदाहरण है
आज उनका 76वां जन्मदिन है।
मुझे लगता है इसको सोलहवां क्यों ना कहूं! क्योंकि उनकी हंसी उतनी ही खूबसूरत है जितनी एक 16 साल की लड़की की होनी चाहिए ,उनकी सोच उतनी ही नई है जितनी एक 16 साल की लड़की की होनी चाहिए, उनकी जिजीविषा उतनी ही जीवंत है जितनी एक 16 साल की लड़की की होनी चाहिए।
कभी-कभी मन करता है आपकी मां बन जाऊं (जैसे आज )और आपको आशीर्वाद दूं कि आप हमेशा यूं ही 16 वर्ष की बनी रहे, हंसती रहें, खिलखिलाती रहें, रचती रहे और हां सब को अप्रैल फूल बनाती रहें
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