






■स्मृति शेष : मुकुंद कौशल.
●साहित्य जगत के अनमोल रत्न थे-मुकुंद कौशल.
-डॉ. माणिक विश्वकर्मा ‘नवरंग’
[ कोरबा-छत्तीसगढ़ ]
मुकुंद कौशल जी का जन्म 7 नवंबर 1947 को दुर्ग (छ.ग.) में हुआ था।उनके पिता सोनी जेठालाल धोलकिया एवं माँ उजम बेन जो मूल रूप से गुजरात में स्थित पोरबंदर जिले के निवासी थे जीवन यापन के लिए सन 1932 में दुर्ग आकर बस गए। सोनी जेठालाल धोलकिया सुनारी का काम करते थे।उनके अच्छे गायक एवं लेखक होने का गुण मुकुंद जी को विरासत में मिला था।वे अपने पीछे पत्नी हीरा एवं दो पुत्र अक्षत्र एवं दिशांत को छोड़ गए है।
गुजराती परिवार से संबद्ध होने के बावजूद उन्होंने छत्तीसगढ़ी भाषा एवं उसकी संस्कृति को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।संगीत, चित्रकला,अभिनय एवं ज्योतिष विज्ञान में रुचि रखने वाले मुकुंद जी को गुजराती के अलावा हिन्दी,उर्दू एवं छत्तीसगढ़ी भाषा की अच्छी ज़ानकारी थी।
मुकुंद जी की पहली कविता जब वे अध्ययनरत थे ‘प्रकाश ‘ नामक स्मारिका में सन 1964 में प्रकाशित हुई थी एवं पहली छत्तीसगढ़ी कविता डॉ.विनय कुमार पाठक द्वारा संपादित भोजली पत्रिका में। उनके समीक्षा ग्रन्थ ‘मोर ग़ज़ल के उड़त परेवा’ का संपादन भी डॉ.विनय कुमार पाठक द्वारा किया गया । मुकुंद जी का पहला काव्य संग्रह लालटेन जलने दो जो सन 1993 में प्रकाशित हुआ था, सामाजिक विसंगतियों एवं विद्रुपताओं पर केन्द्रित होने के कारण काफ़ी लोकप्रिय हुआ।इसके बाद छत्तीसगढ़ी भाषा मे लिखे गए संग्रह भिनसार सन 1998, मोर ग़ज़ल के उड़त परेवा सन 2012 , घाम हमर सँगवारी सन 2017 में एवं बिन पनही के पाँव संग्रह सन 2018 में प्रकाशित हुए और चर्चा का विषय बने।उनके गीतों के ऑडियो कैसेट एवं एलबम भी ज़ारी हो चुके है।
मुकुंद जी की अबतक 18 कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें पाँच हिन्दी गीत संग्रह, चार छत्तीसगढ़ी गीत संग्रह, छः छत्तीसगढ़ी ग़ज़ल संग्रह, एक हिन्दी ग़ज़ल संग्रह,एक गुजराती ग़ज़ल संग्रह एवं एक छत्तीसगढ़ी उपन्यास शामिल हैं। सौ से अधिक पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं।कुछ रचनाएँ बी.ए.,एम.ए. एवं नववीं के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं।वे सन 1978 से 1980 के बीच दुबई में भी रहे जहाँ उन्हें अरबी भाषा सीखने का अवसर मिला।उनके बहुत से गीत जैसे – लीम के डंगाली चढ़े हे करेला के नार ,धर ले रे कुदारी गा किसान , लोगों की ज़बान पर आज भी चढ़े हुए हैं ।चंदैनी गोंदा,सोनहा बिहान एवं नवा बिहान जैसे लोक मंचों में उनकी उपस्थिति उल्लेखनीय रही ।उनकी रचनाओं पर विश्वविद्यालयीन छात्र छात्राओं द्वारा डीजर्टेशन एवं शोध कार्य किया जा चुका है।वे अनेक छत्तीसगढ़ी फिल्मों ,धारावाहिक एवं टेलीफिल्मों के लिए गीत लेखन के साथ अभिनय भी करते रहे।
मुकुंद कौशल जी सहज एवं सरल व्यक्तित्व के धनी थे। कविता के मर्म को समझते हुये उन्होंने सदैव अभिव्यक्ति की कलात्मकता को प्रमुखता से स्थान देने की वकालत की। उनकी रचनाओं में जो दर्द,पीड़ा,विरहानल है उससे यह आभास होता है कि इसको उन्होने भोगा था ,सहा था।
उनकी रचनाओं पर दृष्टि डालें तो कुव्यवस्था के प्रति रोष साफ़ दिखाई देता है यथा-
गीता जैसा पावन ग्रन्थ उठाकर बोले
मगर हमेशा झूठी कसमें खाकर बोले
हमने अपनी बात तहत में कह दी लेकिन
जिसमें ज्यादा कौशल था सब गाकर बोले
यथार्थ को कभी उन्होंने अस्वीकार नहीं किया उन्हें मालूम था कि-
न आपकी , न हमारी न ही किसी की है
हरेक साँस हमारी उधार ही की है
वे चाहते थे कि समाज में समरसता का माहौल बने ,कटुता का समूल नाश हो । तभी तो उन्होंने लिखा है कि –
कामना को रूप देता
कोई नग्मा गुनगुना लो
अपने हाथों में हमारे
प्यार की मेंहदी रचा लो
यकीनन उनके जाने के बाद शायद ही वो शाम दुबारा लौटकर आए जब उनके स्वर में आल्हादित होकर लोग खो जाया करते थे –
गीत मेरे स्वर तुम्हारा
ये सुहानी शाम के पल
फिर न आएंगे दुबारा
बानगी के तौर पर कुछ छत्तीसगढ़ी रचनाओं के अंश जो बेहद प्रभावित करते हैं।उनकी रचनाओं में आशावादी दृष्टिकोण कूट कूटकर भरा था मसलन –
आँसू झन टपकाबे ,सुरता के अँचरा मा
तुलसी के चौरा मा , एक दीया धर देबे
बेरोजगारों के प्रति उनकी चिंता लाजिमी थी क्योंकि इसका दंश स्वयं उन्होंने भी भोगा था –
गाँव शहर मा किंजर किंजर के,
हाँका पारौ तब बनही
ठलहा बइठे मनखे मन ला,
काम तियारौ तब बनही
आधुनिकता का खामियाजा किसी न किसी रूप में प्रभावित जनों को भुगतना पड़ता है ।सहीं कहा है कि-
ये कइसन करलाई होगे
घाट म अड़बडझ काई होगे
काठा-पइली-सेर नंदा गै
नोहर आना -पाई होगे
प्रभावशाली लोगों पर तंज कसते हुए एक जगह उन्होंने लिखा है कि –
अतका बात घलो नइ समझस
कइसन गाड़ीवान हवस
उँकरे बइला सोज रेंगथे
जेकर हाथ तुतारी हे
चिराग तले अँधेरा होता है यह शाश्वत सच है । लेकिन इस पर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। मुकुंद जी हमेशा ऐसे लोगों की पैरवी करने आगे आते रहे ।ये बात उनकी लेखनी से भी प्रकट होती है-
जे बनिहारिन बर बिहाव मा
बत्ती धर के चलत रथे
ओकर करिया जिनगानी मा
दीया बारौ तब बनही
मुकुंद कौशल जी से मेरा जुड़ाव सन 1975 से रहा जब मैं शा.कला एवं विज्ञान महाविद्यालय दुर्ग से रसायन शास्त्र में एम.एस.सी कर रहा था।रोज़ डोगरगढ़ से जाना – आना होता था।उन दिनों लिखने वालों की इतनी भीड़ नहीं होती थी। गिनती के लोग थे जो एक दूसरे को भलिभांति जानते थे।एक समय ऐसा भी आया जब मैं अक्सर उनकी दुकान म्यूजिको में जाकर बैठा करता था । तब से उनकी मृत्यु के कुछ दिनों पूर्व रायपुर में आयोजित छत्तीसगढ़ी साहित्य महोत्सव तक, संपर्क का सिलसिला ज़ारी रहा। उम्र में बड़े होने का अहसास कभी उन्होंने होने नहीं दिया। हरदम मित्रवत व्यवहार निभाया । मंचों पर भी हम साथ रहे ,चाहे वह दूरदर्शन का हो या जनता का ।ताउम्र वे प्रकाशन, प्रसारण एवं मंचों पर समान रूप से सक्रिय रहे। प्रशंसा करना भी उन्हें ख़ूब भाता था।दूसरों की प्रशंसा करते नहीं थकते थे। आज आत्ममुग्धता का दौर चल रहा है। ऐसे लोगों की संख्या निरंतर घट रही है जो मुक्तकंठ से औरों की योग्यता को स्वीकार करते हों।यहाँ मुझे मिर्ज़ा गालिब का एक शे’र याद आ रहा है जो उन्होंने मीर के संदर्भ में लिखा था कि –
रेख़्ते के तुम ही उस्ताद नहीं हो गालिब
कहते हैं अहले ज़माने में कोई मीर भी था
सबसे सरल काम होता है किसी की आलोचना करना। प्रशंसा करने के लिए किसी के समूचे व्यक्तित्व एवं कृतित्व के गहन अध्यन एवं गूढ़ चिंतन से गुज़रना पड़ता है। मुकुंद जी जब भी मैं कहता था अपनी रचनाएँ भेज देते थे। चाहे बात मेरे संपादन में हिंदकी की हो या साहित्यिक पत्रिका किस्सा कोताह की जिसकी चयन समिति में मैं शामिल हूँ ।इतना सहज और सरल व्यक्तित्व था उनका। उन्हें सरकारी सम्मानों के बंदरबाँट पर आख़िरी दम तक रंज़ रहा।इस संदर्भ में उनकी पीड़ा साफ़ दिखाई देती थी। दिनांक 4.4.2021 दोपहर को छाछ पीकर जब वे लेटे तो ऐसी यात्रा में निकल गए जहाँ से कोई लौटकर वापस नहीं आता।छत्तीसगढ़ साहित्य जगत के अनमोल रत्न थे मुकुन्द कौशल । मेरा मानना है कि उनको योग्यता के अनुरूप जो सम्मान मिलना था नहीं मिल पाया।ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें।
●डॉ. माणिक विश्वकर्मा ‘नवरंग’
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