■ग़ज़ल : ■लतीफ़ खान ‘लतीफ़’.
भीड़ में गूंगों के जब से हम हुए शामिल ‘लतीफ़’.
आ गई है रास हम को अब ये तन्हाई बहुत.
-लतीफ़ खान ‘लतीफ़’
[ दल्लीराजहरा-छत्तीसगढ़ ]
गूँजती है जिस जगह खुशियों की शहनाई बहुत ।
हाँ वहीं लेता है दर्दे – दिल भी अंगड़ाई बहुत ।
इश्क़ की अन्धी अदालत का अजब इन्साफ़ है ,
आँख थी मुजरिम मगर दिल ने सज़ा पाई बहुत ।
मेरी जानिब कम उठी नज़रे – इनायत यार की ,
आइनों से ही रही उस की शनासाई बहुत ।
कुछ तो ग़ैरों ने किये ज़ुल्मो – सितम मुझ पर यहाँ ,
और थी अहबाब की भी कार फ़रमाई बहुत ।
भूख ही लिख जाएगी वो रोटियों के नाम पर ,
अब सियासत हो गई है देखो हरजाई बहुत ।
इश्क़ का गूंगा तक़ाज़ा चीखता ही रह गया ,
हुस्न की क़ातिल अदाएँ ख़ुद पे इतराई बहुत ।
सोच कर रखना क़दम राहे – वफ़ा में दोस्तों ,
प्यार के अन्धे सफ़र में होगी रुसवाई बहुत ।
क्या दिखाता मैं किसी को ज़ख़्मे – दिल अपना यहाँ ,
गो तमाशा एक है लेकिन तमाशाई बहुत ।
भीड़ में गूंगों के जब से हम हुवे शामिल ‘लतीफ़’ ,
आ गई है रास हम को अब ये तनहाई बहुत ।
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