■अगस्त माह की कवियित्री : ■शिखा दास.
[ ●’मिशन पत्रकारिता’ के नाम से समाजसेवा में कार्यरत शिखा दास प्रगतिशील कवियित्री भी हैं. ●मॉरीशस, नेपाल, भूटान,श्रीलंका, बैंकाक,वियतनाम, कम्बोडिया सहित देश के कई राज्यों में ओजस्वी कविताओं का पठन किया है. ●मलेशिया लिंकन यूनिवर्सिटी व मुंबई नानावटी महिला महाविद्यालय के सँयुक्त आयोजन ‘मीडिया साहित्य संस्कृति और चुनौतियां’ पर शिखा दास शोधपूर्वक वक्तव्य रखा. ●शिखा दास कवियित्री के अलावा पत्रकारिता के मिशन से भी जुड़ी हैं. ●’छत्तीसगढ़ आसपास’ प्रतिमाह प्रदेश के किसी एक रचनाकार को ‘इस माह के कवि’ में शामिल करते हुए उनकी 3 प्रतिनिधित्व रचना को प्रकाशित करती है. ●इस माह हम ‘महासमुंद’ की ओजस्वी औऱ प्रगतिशील कवियित्री शिखा दास की तीन कविता ‘मैं नहीं चाहती नये शिलालेख’, ‘अस्मिता का संरक्षण चाहिये’ और ‘चिड़ियां गुमसुम है न छलो संस्कार संसार को’ प्रकाशित कर रहे हैं. कविताओं के प्रति अपनी राय अवश्य लिखें.उत्कृष्ट एवं सारगर्भित पत्रों को प्रकाशित भी करेंगे. -संपादक. ]
●शिखा दास
[ महासमुंद-छत्तीसगढ़ ]
■मैं नहीं चाहती नये शिलालेख
जिंदगी परत दर परत ,
शिलालेखो सी
हो गयी ;
खड़ी है
हिचकोले खाती ,
बीच मँझधार में
गली सड़क चौपाल –
के जँजाल में
व
चतुर भेड़ियो
लकड़बग्घो के जाल में –
जिन्दगी ऐसी लग रही
मानो
कब हठात खूँखार ?
बाघ के नाखून _
पँजे मारकर
लहूलुहान कर देँगे!
अकस्मात
और
मेरी सबकी छटपटाहट
खूँखार
जबड़ो में
खून से सन जायेगी
और बना देगी
प्रस्तर (पत्थर)का
एक नव शिलालेख
मैं नहीं चाहती
नये शिलालेख ।
इसलिए आओ
हम खूनी जबड़ोके
ब्रम्हराक्षसो को मार दे
ताकि
> > > प्रस्तरो के शिलालेख
कालखण्डो मे
ना दिखे
“अपराजिता की
पुष्पवाटिका
बन जायेँ चतुर्दिक ”
ताकि
अपराजिता के
फूल ही फूल हो
और मानव जीवन
प्रस्तर के शिलालेखो से
आजाद हो
महके
चतुर्दिक
हो जाये जीवंत
दिक् दिगँत
■अस्मिता का सरंक्षण चाहिए
ओ मेरे दोस्तों –
ओ मेरे देशवासियों,
सुनो जरा आज
हमें मां बहिन बेटी की सँज्ञा नही चाहिए
ना ही पत्नी का सर्वनाम चाहिए
एक याचना-एक विनती
नारी समूह की बस यही
कि हमारी हिँसा में छटपटाती
खतरे में पड़ी अस्मिता को
सँरक्षण का
वसन चाहिए
विकृत परिवेश में परिवर्तन चाहिए
मानवता का आह्वान चाहिए
मेरे देशवासियों
सँज्ञा सर्वनाम नही चाहिए
सँरक्षण का वसन चाहिए
मानवता का आह्वान चाहिए
हिँसा में आबद्ध
दमघोटू विकृति में
सँरक्षण की सदी चाहिए
मनुजता की छाया नारी काया को चाहिए :::
सँरक्षण का वचन चाहिए
सँरक्षण का शपथ चाहिए।
■चिड़िया गुमसुम है न छलो संस्कार संसार को
मै डरती हूँ
सँभावनाओ से
नहीं
सच है कि कही पीपल में बैठी वह
चिड़िया –
अचानक चहचहाना ,
बन्द मत कर दे;
क्योंकि ,
पेड़ किस तरह कट रहे हैं
शाख ही नही रहेगी
तो चिड़िया –
किस पर कहाँ बैठेगी ?
कैसे गीत गायेगी
चहचहायेगी?
चिड़िया का दर्द कौन समझेगा ?
हठात् गुमसुम हो गयी चिड़िया
तो तुम्हे भोर की;
नीँद से –
सुरीली आवाज में जगायेगाकौन?
नन्ही प्यारी चिड़िया ना होगी –
तो सुबह /शाम के आने की, आहट सुनायी ना देगी /
ठीक उसी तरह ,
जैसे –
आज बम के धमाकों में –
सँवेदनाविहीन परिवेश में ,
ह्दय की अथाह वेदना में
मानव आज गुमसुम हैं /
लाचार होकर-
क्या करे वह ?
निनाद नही होगा –
कलरव नहीं गूँजेगा ,
हृदय पटल पर /
धरा पर ,
गगन पर,
सोचो हे मानव–
मानो हिरोशिमा कीभाप बनकर /
अभी अभी,
सोख गया ;
धरती को कोई/
हे बँधु !
मूक वृक्षो की छाती पर
आरी ना चलाओ
न उजाड़ो वन को
न उपवन को छलो
न चिड़िया के नीड़ को
न मानव सँसार को –
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【 इस माह के कवि स्तम्भ के अंतर्गत अपनी तीन रचना,परिचय और फ़ोटो के साथ प्रेषित करें. रचनाकारों की कविताओं को ससम्मान प्रकाशित करेंगे. रचना इस व्हाट्सएप नंबर 94241 16987 पर ही टाइप करके भेजें. पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित या पेपर कटिंग पेस्ट किया हुआ स्वीकार नहीं होगा. -संपादक 】
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