■इस माह की कवियित्री. ■रजनी शर्मा बस्तरिया.
♀ सोनपाखियां छप्पर के धूप में,
आंगन में बगरती सुकून सी।
बैलगाड़ी के चक्कों ,ओंगन में,
पगडंडियों पर चलते कदमों सी।
पुरवाई,धूल,टेर और गुबार में,
गमकती अल्हड़ चंपई उजास सी।
हांडी के चांवल के खदबदाहट में,
पेट के आग की सौंधी रोटी सी।
लरजते फागुनी बौरों के फुनगे में,
भांग घुली बतरसिया के ख़ुमार सी
देशज राग,ठिठोली की गठरियों में
परहेज़गारों के गले में फांस सी।
हां बसती है प्रत्येक रोम रोम में,
हूंकार भरती है देह में लहू सी।
शक्ति पुंज सी शरीर के नाभि में,
विराजती ललाट पर इंद्री ईला सी।
निज भाषा के ही आते सपनों में,
तान हो जैसे मीठी-मीठी लोरी सी
नही शामिल किसी प्रतिस्पर्धा में,
हिन्दी शास्वत सत्य है विजया सी।
♀ पहचान वाले
कोदो, कुटकी
उगते थे
“पहाड़वक्षा ” बस्तर पर ……
अब आंचल
ढ़लकने
लगा है ?
और अजनबी सी
फसलें
उगने लगी हैं
” मृतवक्षा “बस्तर पर…..
♀ बूंदों से कहो ना ईतरायें इस कदर,
बरस मेरे शहर में जरा ,
तफ़सीली से…………..
जिनके घरों में है बेहिसाब सुराखें,
कर उनका लिहाज़ जरा,
मुफ़लिसी से………. .
भरी बरसात में भी सूख जाती हैं
शाद़ाब बेलें,
हरेपन को चढ़ने दे परवाज़ जरा
मायूसी से…………
बादलों से तेरी जुगलबंदी अच्छी है मगर,
टिन की छतों वाली धक-धक सुन
जरा ख़ुलुसी से…………….
अपनी मौज़ों को दे तू परवाज़
ऐ बारिश,
अवाम की आंखों से भी भीग
जरा उदासी से……………
इस महफिल में हो रहे हैं तेरे
ही चर्चे,
कब बरसेगा पुरज़ोर तू कह भी दे
रजनी से…………….
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