■कविता आसपास : ■पंखुरी सिन्हा.
♀ शराब बंदी और विकल्प
♀ पंखुरी सिन्हा
【 युवा लेखिका पंखुरी सिन्हा की दो हिंदी कथा संग्रह ज्ञानपीठ से,5 हिंदी कविता संग्रह, दो अंग्रेजी कविता संग्रह के अलावा कई किताबें प्रकाशनाधीन. कई पुरस्कारों से सम्मानित पंखुरी सिन्हा देश के अलावा रोमानिया, इटली,अल्बेनिया, नाइजीरिया में भी सम्मानित हुई हैं. पंखुरी जी की कविताओं का चौबीस से अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है.
‘छत्तीसगढ़ आसपास’ में पंखुरी सिन्हा की कविता ‘शराब बन्दी और विकल्प’ को पढ़ें और प्रतिक्रिया से अवगत कराएं. -संपादक ]
आप ने देखी होगी
शराब की दुकानों के आगे
लम्बी कतार मदिरा प्रेमियों की
एक बार फिर, खुलते ही लॉक डाउन!
और रोई होगी आपकी आत्मा
कि इस प्रलय सरीखी महामारी ने भी
बदली नहीं नशे खोरी की आदत!
अब भी हैं मदिरा पान को इतने
आतुर, ज़िंदा बचे लोग! कि परवाह नहीं उन्हें, सोशल डिसटेंसिंग की
ज़रा भर ! देखिये, कितने हैं अधीर
पहुँचने को दुकान तक
कि पहुँचते पहुँचते खत्म न हो जाए
शराब की बोतलें!
आप ने देखा होगा टेलीविज़न की
सुर्खियों में भी यह दृश्य!
और हुए होंगे , चकित, विस्मित
द्रवित!
आप लगातार पढ़ रहे होंगे
खबरें कि शराब बन्दी वाले
प्रदेशों में चोरी छिपे
बेची खरीदी जा रही है
मदिरा और समूचे तंत्र की ठगी से
हुए होंगे क्षुब्ध! आतंकित!
आखिर, ये कौन लोग हैं जो
बेच ही लेते हैं ऐसे या वैसे
अपनी शराब? आखिर, कितने
सूत्र, कितने सम्पर्क हैं शराब माफिया के! कितनी उसकी पहुँच! वे ढूंढ ही
लेते हैं अपने ग्राहक
उन भोले अवश लोगों में
जो कानून तक तोड़ने को
तैयार हैं, मदिरा पान के लिए!
सच, दुनिया में हर किसी के लिए
रीहैब नहीं है मुहैया !
अलबत्ता, कतार में कई संभ्रांत
दिखते लोग हैं!
और हर कतार दृष्टि के आगे नहीं!
हर वक़्त वो लोग दिखते नहीं
जो दिन भर की पूरी कमाई
झोंक देते हैं देशी ठर्रे पर!
और प्रताड़ित करते हैं
पूरे परिवार को!
शायद, शराब बन्दी से भी अधिक
कठोर कुछ नियमों की है
ज़रूरत! या शायद सख्ती नहीं
कुछ नरमी की है ज़रूरत!
जहाँ नशेडी बता सकें
क्यों है ज़रूरी उनके लिए
गम गलत करना?
क्यों नहीं छोड़ सकते वे
नशे की लत?
क्या कलाएँ नहीं कर सकतीं
कोई मदद उनकी ?
क्या आप ने, हमने सुना है
आर्ट थेरपी के बारे में
पर्याप्त ?
वे जो पढ़े लिखे हैं
उनके लिए और जो नहीं पढ़े
उनके भी लिये !
कलाएँ क्या नहीं कर सकती?
नाटक, नुक्कड़ नाटक, चित्रकारी
और जो नहीं पढ़े, जिन्हें नहीं लिखनी आतीं चित्ठियाँ, उनके लिए
नई कलमकारी? अक्षरों की नई
कलमकारी! बहुत बड़ी है
किताबों की राहें और क्या हमने
कभी सोचा है कि वो कुछ लोग
क्यों अंटके हैं, उसी तंग जगह
जैसे वर्षों से?
उनकी झुग्गियों में टेलीविज़न के
पर्दे हैं, लेकिन किताबें कोई नहीं!
आखिर क्यों?
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