गीत : गोरी का गाँव.
■डॉ. माणिक विश्वकर्मा ‘नवरंग’.
♀ गोरी का गाँव
♀ डॉ. माणिक विश्वकर्मा ‘नवरंग’
[ जमनीपाली, जिला-कोरबा, छ. ग. ]
टीले से सटा हुआ गोरी का गाँव है
पनघट के आसपास पीपल की छाँव है
चौराहे के सम्मुख मंदिर का द्वार है
थोड़ी दूर पर स्थित फूलों की कतार है
हरी – भरी वादी , रस्ते में उन्नाव है
रोज़ सुबह तैरती है लहरों के ताल में
दिखता है अद्भुत कंपन उसकी चाल में
लगता है मृगनयनी कागज की नाव है
चहचहाते हैं विहग बरगद के पेड़ पर
औरतें साल्हो गातीं मिलेंगी मेड़ पर
मुखिया पंचायत का मेरा सहनाव है
वक़्त सँवर जाता है केवल अहसास से
मुक्ति मिलती है पीड़ा और संत्रास से
हर दिल की शहनाई में उसका ठाँव है
न ही कोई दुश्मन है न कोई मीत है
हिस्से में उसके हर लम्हे की जीत है
सबकी आँखों के आगे उसका दाँव है
बैठती है धूप में बालों को खोलकर
बोला करती है वो शब्दों को तोलकर
अप्सराओं जैसा उसका हाव- भाव है
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