■कविता आसपास : सवि शर्मा.
♀ पाषाण
♀ सवि शर्मा
[ देहरादून, उत्तराखंड ]
बदल जाते है आयाम जीवन के
यदि नही करते विवेचना
जीवन के अर्थों की
निर्विकार से पशुवत् चलते है
भोगते जीवन को
और यूँ ही हो जाता है जीवन व्यर्थ
व्यर्थ ही तो
ईश्वर प्रदत्त मस्तिष्क में कभी
धूमकेतु के संकेत नही मिले
सड़कों पर व्यथा लिए चल रहे निष्प्राण
खुद में ही खोये
पीते जा रहे हैं विकास का गरल
अर्थ हीन जीवन क्या कभी तुष्टि दे पाता है
नष्ट होता परिवेश विकास के नाम पर
बढ़ती खाई अमीर गरीब के बीच
विकास किसे कहोगे
सड़कों मशीनों बड़े कंकरीट जंगल
अवसाद में घिरे कमरों में सिकुड़ी मानवता
इन्ही जड़ वस्तुओं का विकास चाहते थे
बच्चों का भावहीन चेहरा
आवाज़ एक यंत्र से सुनते
तरसते गले लगाने को अपने ही अंश को
ख़ुश होते देख उसकी तरक़्क़ी
जिसे तुम्हारा बाते करना चोचलेबाज़ी लगता है
कह देते है तुम एक बीता युग हो
तुम्हारे द्रवित ह्रदय के आँसू
सिर्फ़ एक ड्रामा
पाषाण युग बन गया है
यहाँ तक तुम्हारा ह्रदय भी
एक पाषाण के सिवा कुछ नही
कुछ भी नही
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