






■भावांजलि : लता मंगेशकर.

गीता विश्वकर्मा ‘नेह’
स्वर की देवी सुर साम्राज्ञी
लता दीदी तुम थी तो खूब ।
मेरे अधरों पर थे प्यारे
गाए तेरे गीत रसीले,
अर्थ न समझी भाव न जानी
फिर भी बाँची मीत छबीले,
खेल मेल के संगत में थे
गायन के लयताल खनकते,
अपने में ही लीन रही पर
आसपास में गीत महकते,
कोकिल कंठी की तानों से
बचपन छलका छलका खूब ।
अँगड़ाई ले कली छबीली
यौवन का आनंद लिया जब,
जाने कितने सुर में डूबी
मोहकता स्वक्छंद किया तब,
मादक स्वर लहरी ने मेरे
रूप निखारे राग दिए थे,
बिन साजन के अनुबंधित कर
मुझको प्रेमिल फाग दिए थे,
रुत बसंत के रंग समाकर
यौवन महका महका खूब ।
जीवन के हर रंग उड़ेली
सखी बनी माँ सी ममता दी,
देशभक्ति की हूक उठाकर
मेरे मन अंदर समता दी,
पीड़ा में हँस दी रो रोकर
सुनकर गाये गीत तुम्हारे,
जिए हरिक मौसम विभोर हो
तुम्हीं दिए थे हमें सहारे,
रोग शोक अवरोध द्वंद्व में
तन मन दहका-दहका खूब ।
हर पड़ाव पर कदम मिलायी
राह दिखाई जीवन भर,
सुस्तायी तेरी छाँया में
और चली फिर से उठकर,
सुबह हुई अब शाम ढल गई
उम्र गुजारी साथ तुम्हारे,
चली गयी तन से पर मन को
छोड़ गयी हो हिय के द्वारे,
याद तुम्हारी आयी जब जब
मन यह बहका बहक खूब ।
chhattisgarhaaspaas
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