■कल से लेकर आज़ तक : छत्तीसगढ़ी कविताओं में वसंत. ■अरुण कुमार निगम[दुर्ग].
भारतवर्ष में तीन मुख्य ऋतुएँ ग्रीष्म, वर्षा और शीत होती हैं। चार उप-ऋतुएँ भी होती हैं – शरद, हेमन्त, शिशिर और बसंत। इन सब ऋतुओं में वसंत को ऋतुराज कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि माघ माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि से वसंत ऋतु प्रारंभ हो जाती है जो फागुन और चैत्र मास तक रहती है। वसंत ऋतु में न अधिक गर्मी होती है, न अधिक ठंड होती है। पवन में मादकता घुली होती है। टेसू, सेमल, गस्ती, तेंदू, चार, मउहा, सरसों से लेकर आम की मौर भी इसी ऋतु में बौराने लगती है। वसंत को कामदेव का पुत्र भी माना गया है। जीव-जंतुओं और कीट-पतंगों के लिए भी यह ऋतु वंश वृद्धि की ऋतु होती है। कवियों की कलम-कोकिला भी इस ऋतु में कूक उठती है। आज हम छत्तीसगढ़ के उन कवियों की कविताओं की एक झलक आपके सामने प्रस्तुत कर रहे हैं जिन्होंने छत्तीसगढ़ी भाषा में वसंत ऋतु को चित्रांकित किया है। प्रत्येक कवि की कविताओं का यदि उल्लेख किया जाए तो वसंत ऋतु पर एक विशेषांक के रूप में एक ग्रंथ तैयार हो जाएगा किन्तु इस आलेख में हर कवि की कविता का उल्लेख करना संभव नहीं होगा अतः उनकी कविताओं की कुछ पंक्तियों का ही उल्लेख किया जा रहा है। इस आलेख में पचास के दशक से लेकर वर्तमान समय के प्रतिनिधि कवियों की कविताओं तथा छन्दों की झलक दिखाने का प्रयास किया गया है –
वसंत का वर्णन करते हुए कवि प्यारेलाल गुप्त कहते हैं –
फुलथे टेसू जूही नेवारी मौर आम बइहा होथे
भँवरा गुनगुन करके उड़थे कोइली अपन सुनाथे तान।
जनकवि कोदूराम “दलित” सुख के दाता वसंत की तुलना साधु-संत से करते हुए कहते हैं –
हेमंत गइस जाड़ा भागिस, आइस सुख के दाता बसंत
जइसे सब-ला सुख देये बर आ जाथे कोन्हो साधु-संत।।
बड़ गुनकारी अब पवन चले, चिटको न जियानय जाड़ घाम
ये ऋतु-मा सुख पाथंय अघात, मनखे अउ पशु-पंछी तमाम।।
कवि द्वारिकाप्रसाद तिवारी विप्र पृथ्वी ही नहीं बल्कि आकाश पर भी वसंत का प्रभाव देखते हैं –
जब जाड़ हर जीव लुकाथे तब बइहर बसन्त अमाथे
जब टेसू फूल ललियाथे तब बइहर बसन्त अमाथे
पिरथी अगास अउ पानी, इन सबके जगिस जवानी
जड़ चेतन दुन्नों मातिन अउ कोइली मन बनिन सुवासिन।।
जब रंग अनंग जमाथे, तब बइहर बसन्त अमाथे।।
महाकवि कपिलनाथ कश्यप कहते हैं –
जूड़ महमई पवन चलिस, हरियारी छागे
मधु ऋतु आइस नार बयार मा फूल लदागे
आमा मउरिन अमरैया मा भँवरा गूँजिन
जा जा के महमई फूल के रस ला चूमिन।।
कवि रघुवीर अग्रवाल “पथिक” सरसों, टेसू, बाग बगइचा के साथ-साथ गेहूँ की बाली की लहक को भी देखते हैं –
चहकै सरसों पींयर दहकै टेसू लाली लाली
महकै बाग बगइचा, लहकै खूब गहूँ के बाली
गरती आमा जइसे, हवा बसंती हर गदरा गे
उड़य गुलाल, नँगारा बाजे, फागुन राजा आगे।
वयोवृद्ध कवि श्यामलाल चतुर्वेदी के शब्दों में छत्तीसगढ़ी भाषा का लालित्य देखिए –
चटकन मारे कस चाँय चाँय, पनमिंझरा जाड़ नँदागे
कतको झन के कमरा डेढ़ी, छंपी मंझटूट धरागे।
चन्दा चकचक ले ऊगय, कइसन हे फिटिंग अँजोरी
ससपात नँगारा लेके अब, सब मता दिहिन हे होरी।
डॉ. नरेंद्र देव वर्मा इस मौसम में विरही मन की व्यथा को स्वर देते हुए कहते हैं –
महुआ हर फुलगे फागुन लगिगे, मोर रग रग मा कइसे होरी जरिगे
बरिस पहागे नइ आइस बदके, जी हर नइ बाँचे अतिक दुख सहिके।
मधुर कवि और गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिया के इस गीत के बिना वसंत और फागुन रंगहीन ही लगेंगे –
मन डोले रे माघ फगुनवा रस घोरे रे माघ फगुनवा
राजा बरोबर लगे मउरे आमा, रानी सहीं परसा फुलवा।
हास्य व्यंग्य के सशक्त हस्ताक्षर रामेश्वर वैष्णव अपनी विशिष्ट शैली में कहते हैं –
अइसे मजा आगे संगी होली तिहार के
डोकरा ह ग डोकरी ल बलाइस सीटी पार के।।
कवियत्री डॉ. निरूपमा शर्मा कहती हैं –
मौरे हे आमा के पेड़ पिंऊरी लिखे हे भाग
गमकथे अमरइया मन-मीत पाये हे ।
कोयली गावथे गीत, कमल मोहाये भौंरा
रात रात भर बंधे सुध खोये हे ।
कवि बद्रीविशाल परमानंद की बसन्त ऋतु पर एक बानगी –
मातगे हे परसा मात गेहे कउहा, मात गेहे आमा मोर मात गेहे मउहा
अरसी के झूल माते गहूँ के घूल माते, तिवरा के लाज गेहे रे, मात गेहे सरसों फूल, गन्धिरवा मात गेहे रे
छत्तीसगढ़ी साहित्य समिति के संस्थापक कवि सुशील यदु की रचना –
अहा बसंत ओहो बसंत, कुंहुक कुंहुक कुंहकावत
आनंद ला बगरावत, बसंती संग मा आवत बसंत
अहा बसंत ओहो बसंत
धमतरी के कवि भगवती लाल सेन की कविता में बासंती दृश्य इस तरह जीवंत हो उठा है –
कोन गुदगुदावत हवय, जीव कुलबुलावत हवय
पवन सुरसुरावत हवय संगी। आगे बसंत बन मातंगी।
कोईली कुहकत हवे गोंसइया, झुमरे अस रेंगे किजरैया,
मउरे हय आमा अमरैया मने मन म हसे पुरवइया
दिखे नवा नेवरिया फुरफुन्दी । आगे बसंत बन मातंगी।
गंडई के कवि पीसीलाल यादव बासंती विरह का वर्णन कुछ इस प्रकार से करते हैं –
आगे ऋतु बसंत, तैंहा नई आए, केंवची करेजा ल काबर कल्पाए?
कुहु-कुहु कोयली, गावत हवय गाना, गाना गा-गाके, मारे मोला ताना।
परसा फूल बैरी आगी लगाए। आगे ऋतु बसंत, तैंहा नई आए।
कवि राजेश चौहान को इस मौसम में माटी चंदन-सी और धूल गुलाल-सी नजर आती है –
बसंत राज के सुवागत मा, लहरावत हे सुर्रा
माटी बने हे चंदन संगी, गुलाल बने हे धुर्रा
कवि गयाप्रसाद साहू “रतनपुरिहा” कहते हैं –
बसंती के सुवागत म कोयली हा कुहके
देखके भौंरा गुनगुनाय, मोरो मन बुदबुदाय
मोरो मन मोहा गईस बसंती म
नवागढ़ के छन्दकार रमेशकुमार चौहान रोला छन्द में कहते हैं –
चारो कोती छाय, मदन के बयार संगी ।
मउरे सुघ्घर आम, मुड़ी मा पहिरे कलिगी ।।
परसा फूले लाल, खार मा जम्मो कोती ।
सरसो पिउरा साथ, छाय रे चारो कोती ।।
एन टी पी सी कोरबा की छन्दकार आशा देशमुख
कुकुभ छन्द में कहती हैं –
भाँग मतौना धरे करे कस, बहत हवय जी पुरवाई।
रितुराजा के संग बितावै, गहदे हावय अमराई।
बलौदाबाजार के आशु-छन्दकार दिलीप कुमार वर्मा
घनाक्षरी छन्द में बसन्त का स्वागत करते हुए कहते हैं –
लग गे बसंत मास,रख जिनगी मा आस,
हावय महीना खास,मान एसो साल जी।।
बिलासपुर के छन्दकार इंजी. गजानंद पात्रे “सत्यबोध
का दोहा देखिए –
धरके नवा उमंग अब, आये हवय बसंत।
सबके मन मा छाय हे, खुशियाँ रंग अनंत।।
ग्राम डोंड़की (बिल्हा) के छन्दकार असकरन दास जोगी दोहा छन्द में कहते हैं –
माते फूल बसंत के,भँवरा मनवा भाय !
देखे ताके टेंड़ के, लाहो लेहे आय !!
बिलासपुर की छन्दकार श्रीमती वसन्ती वर्मा विरह वेदना को उल्लाला छन्द में ढालते हुए कहती हैं –
जोही हे परदेश मा,मन मा ताप हमाय जी।
सुरता मा तन-मन जरे,काबर बसंत आय जी।।
बाल्को के आशु छन्दकार जीतेन्द्र वर्मा “खैरझिटिया” का गोपी छन्द देखिए –
बसंती गीत पवन गाये। बाग घर बन बड़ मन भाये।।
कोयली आमा मा कुँहके। फूल के रस तितली चुँहके।।
करे भिनभिन भौरा करिया। कलेचुप हे नदिया तरिया।।
घाम अरझे अमरइया मा। भरे गाना पुरवइया मा।।
भाटापारा के छन्दकार अजय अमृतांशु
रोला छन्द में वसंत का चित्रण करते हुए कहते हैं –
आवत देख बसंत, फूल सेम्हर के फ़ूलय।
कपसा हा बिजराय,डार मा मुनगा झूलय।।
तिंवरा बटर मसूर, हाँस के करयँ ठिठोली।
झमकत हे राहेर,चना के खन खन बोली।।
गोरखपुर कवर्धा के छन्दकार सुखदेव सिंह अहिलेश्वर छवि छन्द में वसंत की छवि को उकेरते हुए कहते हैं –
आ गे बसंत। छा गे बसंत।।
कहि दिन तुरंत। कवि साधु संत।।
कबीरधाम के छन्दकार द्वारिका प्रसाद लहरे की सरसी छन्द में बानगी देखिए –
रितु बसंत दे बर आये हे,जन जन ला उपहार।
हँसी खुशी मा दिन कटही अब,सुख पाही संसार।।
सहसपुर लोहारा के छन्दकार बोधन राम निषादराज
त्रिभंगी छन्द में वसंत का वर्णन करते हैं कुछ इस तरह से –
परसा हा फुलगे,सेम्हर झुलगे,पवन बसंती,आय हवै।
आमा मउरागे,मन हरियागे,सरसो पिँवरी,छाय हवै।।
ग्राम लमही के युवा छन्दकार मयारू मोहन कुमार निषाद घनाक्षरी छन्द में कहते हैं –
कुहूँ कुहूँ कुहकत , कोयली हा डारा डारा ।
बसंत हा आगे कहि , सबला बतात हे ।।
भिलाई की छन्दकार नीलम जायसवाल रोला छन्द में कहती हैं –
ऋतु बसंत हे आय, हमर मन ला हरसाए।
बगरे हे चहुँ ओर, महक तन मा भर जाए।।
जुनवानी भिलाई की छन्दकार शुचि ‘भवि
ने छन्नपकैया छन्द में वसंत का वर्णन किया है –
छन्नपकैया छन्नपकैया,देखव सरसों फूले।
मनखे मन के मन हा भैया, बासंती बन झूले।।
राजिम की छन्दकार श्रीमती सुधा शर्मा की सार छन्द में एक बानगी देखिए –
आजा अमरैया मा जोही,जुड़ -जुड़ बइहर डोले।
राग -बसंती हवै सुनावत,कारी मधु रस घोले।।
रायपुर की छन्दकार डॉ. मीता अग्रवाल “मधुर” सार छन्द में कहती हैं –
मन मजूर मुस्काये दउड़े, जिनगी बसंत छागे।
दुमुड़ दुमुड़ दुम बाज नगाड़ा, मस्त महीना आगें।।
कोरबा की छन्दकार रामकली कारे के चौपाई छन्द में बसंत का एक दृश्य –
तन-मन मोर बसन्ती होवय। सखी मया मा सुध-बुध खोवय।।
वन-उपवन अति देखत भावय। जब-जब ऋतु बसंत के आवय।।
महासमुंद के छन्दकार श्लेष चन्द्राकर विष्णुपद छन्द में अपनी बात कहते हैं –
नवा नवरिया पंच तत्व हा, मन मा जोश भरे।
सुख मनखे ला बड़ देवइया, ऋतु मधुमास हरे।।
सुप्रसिद्ध रंगकर्मी व अभिनेता शिवकुमार दीपक जी की सुपुत्री कोरबा निवासी छन्दकार श्रीमती शशि साहू सवैया छन्द में वसंत का वर्णन करते हुए कहती हैं
जाड़ जनाय न घाम जरोवय आय हवे ऋतु राज सुहावना ।
अंग सरी पिंवराय दिखे जइसे दुलही भँवरावत आँगना ।
बिलासपुर की छन्दकार धनेश्वरी सोनी गुल सार छन्द में कहती हैं –
ऋतु बसंत आगे देखव जी, धरती सुंदर लागे।
मोर मयूरी झूमे नाचे, मया मोह हा जागे।।
रिसाली भिलाई के छन्दकार विजेन्द्र कुमार वर्मा सवैया छन्द में वसंत का चित्र खींचते हुए कहते हैं –
अब गावत गीत बसंत इहाँ अउ नाचत हे मँउहा मतवार।
सब झूमत हे सुन गीत बने खुशियाँ बरसावत रोज अपार।
खनके सरसों अरसी तिँवरा मउँरे अमुवा दिखथे मनहार।
पिँवरा पिँवरा तब पात झरे पुरवा झकझोर करे ललकार।
बरदा लवन बलौदा बाजार के छन्दकार मनोज कुमार वर्मा सुमुखी सवैया छन्द में बसन्त का चित्रण करते हुए कहते हैं –
नवा पतिया फर फूल लगे रुखवा बड़ गा ममहावत हे।
सजे धरती जस नेवरनीन सही सरसो ह लजावत हे।
मनात खुशी बइठे अमुवा नित डार म कोयल गावत हे।
बसंत बहार धरे सुन रंग म शारद ला परिघावत हे।।
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