■कविता आसपास : अमृता मिश्रा ‘निधि’.
♀ जिंदगी
♀ अमृता मिश्रा ‘निधि’
[ भिलाई, जिला-दुर्ग,छत्तीसगढ़ ]
ये सफर के किस मोड़ पर,
आ रुकी है जिंदगी..
हर शख्स ने हाथों में,
थाम रखें हैं फूल ..
और मेरे अधरों पर,
आती मुस्कान के साथ,
टकरा जाते हैं वो फूल,
पत्थर की मानिंद ।
पसरने लगती हैं फिर,
रक्त की लालिमा..
चेहरे से ज्यादा दिल को,
लहूलुहान करती हुई ।
ऐसा लग रहा जैसे,
सबकुछ सरक कर
हाथों से फिसल गया है,
और मैं एक अंधेरे से,
रास्ते पर तन्हा खड़ी हूँ ।
एक मटमैली-सी,
छाई रोशनी से घिरी,
कुछ दूर लोगों का,
खड़ा एक हुजूम
कहकहे लगा रहा ।
अस्पष्ट चेहरे पर,
जानी पहचानी आवाजें ।
उन्हें समझने की कोशिश में,
मृगतृष्णा में घूमता ये बावला मन,
चीखने को होता है ।
पर जीभ जैसे तालु से चिपक,
हिलने को तैयार नहीं ।
ये किस दलदली जमीन पर,
आ खड़ी हुई मैं??
न पाँव आगे को बढ़ते हैं,
न पीछे से कोई थमाता हाथ,
सागर की मानिंद उफान,
मार रहा है दिल में,
लहरों का ज़ोर और …..
बहुत जल्द सुनामी बन बिखरेगा
और याद रखना फिर मैं भी न होऊँगी
और न होगी तुम्हारी आशनाई कहीं।
असहाय हूँ निर्बल नहीं,
तीसरा नेत्र सक्षम है,
उन पसरे रक्त को साफ कर,
चेहरे की कांति लाने को।
धोखे के काले सायों को चीर,
बेनकाब सब चेहरे पर
रोशनी डालने को अब ..
और कहता है…..
कि बस सम्भल जाना तुम!!
कि बस अब सम्भल जाना तुम!!
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