■कविता : गीता विश्वकर्मा ‘नेह’.
♀ होली
♀ गीता विश्वकर्मा ‘नेह’
[ कोरबा,छत्तीसगढ़ ]
उनसे ही तो फागुन मचता दिल में एक दिवाली रे,
नखरे नखराकर देते हैं होली वाली गाली रे ।
नैन कटोरे छलछल छलके हँसती रँग पिचकारी तब,
ठिठक गये थे यह अबीर भी अधर गुलाबी वारी जब,
साथ पिया हो तो होती है चाल मेरी मतवाली रे ।
हाथों में जब हाथ लिया पहनी अँगूठी उँगली नै,
गलबहियाँ डाला तो कंगन चूड़ी खनकी,फूली मैं,
बदन छुअन के आभूषण से भरे हुए हैं आली रे ।
रंगो ने अपने गुन गाकर इतने अजब सवाल किए,
प्रेम रंग का नशा देखकर भँग ने खूब बवाल किए,
मैं बोली तुम सखा सजन के मैं तो भोली भाली रे ।
आँगन-आँगन रोप गयी है मधुमासी इक फुलवारी,
विरहन की आँखों में यादों की घुमड़ी बदरी कारी,
अब के बरस परस दे फागुन विरह जीवन में लाली रे ।
कली कली को कंत मिले देखो न भ्रमर बसंत मिले,
डार-डार कोंपल अँकुराए जीवन को नव छंद मिले,
बासंती उत्सव में झूले कोई भी नहीं खाली रे ।
■■■ ■■■