■ 21 मार्च ‘विश्व कविता दिवस’ के उपलक्ष पर विशेष : समीर उपाध्याय [गुजरात]
♀ मैं कविता हूं.
—————————————-
मैं कविता हूं।
मैं भाषा शिक्षण का अपरिहार्य अंग हूं।
मैं पद्य साहित्य की एक अनमोल विधा हूं।
मैं कवियों के अंतरतम से निकला अस्खलित नाद हूं।
मैं पूरे विश्व के धरातल पर छाया हुआ साहित्य का अद्भुत भंडार हूं।
मैं कविता हूं।
मैं कवियों की भावनाओं का रसात्मक उद्घाटन हूं।
मैं भावों और उर्मियों की कल-कल बहती सरिता हूं।
मैं भावशून्य व्यक्ति को पूर्ण भावसभर बनाती हूं।
मैं हृदय-मंदिर में अखंड दीप-ज्योत जलाती हूं।
मैं कविता हूं।
मैं प्रेमियों के संयोगानंद की सूर-सरिता बहाती हूं।
मैं विरह की असह्य वेदना को वाणी प्रदान करती हूं।
मैं इतिहास को साहित्य के पन्ने पर अमर बनाती हूं।
मैं भूले हुएं पात्रों को लोगों के दिलों में बसाती हूं।
मैं कविता हूं।
मैं राग,द्वेष,घृणा,ईर्ष्या और पूर्वग्रह से मुक्त करती हूं।
मैं प्रेम,दया,ममता,सत्य और निष्ठा के पाठ पढ़ाती हूं।
मैं नकारात्मक आवेगों को पल भर में दूर हटाती हूं।
मैं सकारात्मक ऊर्जा से जीवन को खूब सजाती हूं।
मैं कविता हूं।
मैं कठोर से कठोर हृदय को पल भर में पिघलाती हूं।
मै हैवान का भी हृदय परिवर्तन कर इंसान बनाती हूं।
मैं रिश्तो की कड़वाहट दूर कर मिठास भरती हूं।
मैं टूटे हुए तारों को जोड़कर मजबूत गांठ लगाती हूं।
मैं कविता हूं।
मैं प्रकृति के अद्भुत सौंदर्य का रसास्वाद कराती हूं।
मैं नीरस जीवन को विभिन्न रसों से तरबतर बनाती हूं।
मैं निरंतर संघर्षरत रहने की एक प्रेरणा जगाती हूं।
मैं मौत से भी सीना तान कर सदा लड़ना सिखाती हूं।
मैं कविता हूं।
मैं हास्य और व्यंग्य के माध्यम से कटु प्रहार करती हूं।
मैं प्रतीकों के माध्यम से ढोल की पोल खोलती हूं।
मैं दु:खियों और पीड़ितों की वेदना व्यक्त करती हूं।
मैं देश और समाज का वास्तविक चित्र दर्शाती हूं।
मैं कविता हूं।
मैं एकाकीपन से थके व्यक्ति की हमराही बनती हूं।
मैं जीवन से ऊबे व्यक्ति में जिजीविषा जगाती हूं।
मैं जीवन को नए जोश, उत्साह और उमंग से भरती हूं।
मैं जीवन जीने की अनुपम अद्भुत कला सिखाती हूं।
मैं कविता हूं।
मैं वीरों और शहीदों की अमर कहानियां सुनाती हूं।
मैं आबाल-वृद्ध सभी में देशप्रेम का जुनून जगाती हूं।
मैं देश के लिए मर मिटने का हौसला बुलंद करती हूं।
मैं जवानों में फ़ौज में भर्ती होने का साहस जुटाती हूं।
मैं कविता हूं।
मैं जात-पात, धर्म और संप्रदाय के भेद मिटाती हूं।
मैं इंसानियत और आदमियत का पैगाम सुनाती हूं।
मैं मानव को सच्चे अर्थ में मानव बनना सिखाती हूं।
मैं ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना जगाती हूं।
मैं कविता हूं।
जहां नहीं पहुंच पाता रवि
वहां भी पहुंच जाती हूं।
■कवि संपर्क-
■92657 17398
●●●●● ●●●●●