■कविता आसपास : तारकनाथ चौधुरी.
♀ हिन्दी ग़ज़ल
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चुप्पी के पट खोल हृदय के भाव मुखरित हो गये।
हम भी इस युग के नये रंगों से परिचित हो गये।।
सतरंगी संस्कृति से जो ,सजा था विश्व गगन में,
टूटा इंद्रधनुष साम्य का ,वर्ण विकरित हो गये।।
स्वार्थ की दीवार खडी़ तेरे हृदय मेरे हृदय
धर्म के अर्थ सिमटकर कितने संकुचित हो गये।
राजनीति में हर नेता हो जाता कुशल जादूगर
पलक झपकते देखो सबके धन द्विगुणित हो गये।
न्यायालय परिसर की मूरत देख चकिततारक है,
किस निर्णय को सुनकर पलडे़ असंतुलित हो गये।।
♀ स्मृति के गलियारे से
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कितना ही सहज था ये जीवन,
जब साथ तुम्हारा होता था
निर्झर सा समय का हर इक क्षण,
केवल ही हमारा होता था
कितनी भी विकट थी स्थितियाँ,
पर अधर सदा मुस्काते थे
आती थीं उलझनें जितनी भी
संग बैठ उभय सुलझाते थे
कोई दुःख न व्यक्तिगत होता था,
वो नितांत हमारा होता था
निर्झर सा समय का हर इक क्षण
केवल ही हमारा होता था
हैं अब स्मृतियाँ ही मात्र निकट
मन कितना इनसे बहलाऊँ
कोई सुधि अतीत जो दुलराये
स्वजनों में बावरा कहलाऊँ
कोई लक्ष्य न दुष्कर होता था
तूफाँ में किनारा होता था
निर्झर सा समय का हर इक क्षण
केवल ही हमारा होता था
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