■ग़ज़ल : डॉ. माणिक विश्वकर्मा ‘नवरंग’
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♀ राजधानी
प्यादों में बटने लगी है राजधानी
पहरा देते हैं यहाँ अब राजा रानी
स्वार्थ की बू आ रही है हर तरफ से
शर्म से हम हो रहे हैं पानी पानी
वो नज़र आए नहीं अबतक शहर में
साथ लेकर आये थे जिनकी निशानी
दूर तक बहते चले जाते थे यूँही
दरिया में बाकी नहीं वैसी रवानी
देखते ही देखते बदला है नक्शा
दिल में काबिज़ हैं फ़कत यादें पुरानी
सुन के जिसको ठंडे खूं में गर्मी आए
क्यों नहीं दिखती हमें ऐसी कहानी
द्वार पर ठहरा हुआ है वक़्त ‘नवरंग’
तड़पा बचपन बेसबब रोयी जवानी
■कवि संपर्क-
■79748 50694
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