■पर्यावरण दिवस पर विशेष रचना : वीणा [झुमरीतिलैया, झारखंड]●
♀ प्रकृति
प्रकृति की आबोहवा में
पलती है एक जिंदगी
सुनहरे भविष्य का सपना संजोये
लोग उसे कुचल कर
जीना चाहते हैं एक खूबसूरत लम्हा
मूक प्रकृति करती है कोशिश
खुद को संभालने की
प्रतिस्पर्द्धा की दौड़ में बाजी लगा रहे
लोगों को रोकने की
सपने हैं उसके
रोज जला जाये कोई बहुरिया
साँझ को एक दीया पीपल के चबूतरे पर
बरगद की छाँव में जमी हो
रिश्तों को समेटे बुजुर्गों की महफिल
निबौली चुनते बच्चों का बचा रहे लड़कपन
सर्पीले पगडंडियों पर दिखे कोई हरवाहा
बैलों को हाँकता हुआ__
रिमझिम फुहारों तले कोई गोरी
बेफिक्र नाच उठे मोरनी की तरह
प्रकृति खुलकर साँस ले सके
होकर मन मस्त , मगन
गौरैयों का झुंड सुनाता रहे संगीत
अपने कलरव से
नदी का कलकल बहता पानी
पखारता रहे पैर प्रकृति का
बस इतनी सी तो ख्वाहिश है उसकी
क्यों न पूरी कर दें हम
उसकी हर इक ख्वाहिशें
उसे मुसकुराने के लिए
सुनो_प्रकृति के संग चलना होगा हमें
अपनी हँसी बरकरार रखने के लिए
■कवयित्री संपर्क-
■84346 51667
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