⛔ मुक्तिबोध [13 नवम्बर 1917 – 11 सितम्बर 1964] •गणेश कछवाहा
मुक्तिबोध
अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब
•मुक्तिबोध वस्तुत: जीवन दर्शन, व्यवस्था की विसंगतियों और सामाजिक चेतना से साक्षात्कार करते हुए जीवन के सौंदर्य को तलाशते हैं.
•यथार्थ से सीधे साक्षात्कार करने का नाम है – मुक्तिबोध
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मुक्तिबोध के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उसमें युग की नई चेतना नये रूप में अभिव्यक्त हुई है वह भी नई काव्य भाषा में। जिसमें चेतना और भावना के विद्रोह के साथ भाषा का विद्रोह भी मिलता है। … मुहावरे, लोकोक्तियों का प्रयोग भी उनकी काव्य भाषा में हुआ।
मुक्तिबोध हिन्दी साहित्य के ऐसे कवि हैं जिन्होंने छायावाद से काव्य रचनाएं आरम्भ की और प्रगतिवाद, प्रयोगवाद व नई कविता की युगधाराओं से जुड़ते हुए काव्य में ऐसी काव्य भाषा और शिल्प का प्रयोग किया
मुक्तिबोध काव्य को दो प्रकार का मानते हैं- यथार्थवादी और भाववादी या रूमानी। उनके अनुसार, ”कलाकृति स्वानुभूत जीवन की कल्पना द्वारा पुनर्रचना है। यथार्थवादी शिल्प के अन्तर्गत, कलाकृति यथार्थ के अन्तर्नियमों के अनुसार यथार्थ के बिम्बों की क्रमिक रचना प्रस्तुत करती है किन्तु भाववादी रोमांटिक शिल्प के अन्तर्गत कल्पना अधिक स्वतन्त्र होकर जीवन की स्वानुभूत विशेषताओं को समष्टि चित्रों द्वारा, प्रतीक चित्रों द्वारा प्रस्तुत करती है। मुक्तिबोध वस्तुतः जीवन दर्शन ,व्यवस्था की विसंगतियों और सामाजिक चेतना से साक्षात्कार करते हुए जीवन के मुक्ति का मार्ग तलाशते हैं।यथार्थ से सीधे साक्षात्कार करने का नाम है मुक्तिबोध
संक्षिप्त जीवन वृत्त –
मुक्तिबोध का जन्म 13 नवम्बर, 1917 को रात 02 बजे श्योपुर मध्यप्रदेश में माधवराव-पार्वती दंपत्ति के घर हुआ। पूरा नाम रखा गया- गजानन माधव मुक्तिबोध। माता-पिता की तीसरी संतान थे। उनसे पहले के दोनों शिशु अधिक जीवित नहीं रह सके थे। इस कारण मुक्तिबोध के लालन-पालन और देख-भाल पर अधिक ध्यान दिया गया। उन्हें खूब स्नेह और ठाठ मिला। शाम को उन्हें बाबागाड़ी में हवा खिलाने के लिए बाहर ले जाता। सात-आठ की उम्र तक अर्दली ही उन्हें कपड़े पहनाते थे। उनकी सभी ज़रूरतो का ध्यान रखा जाता रहा, उनकी हर माँग पूरी की जाती रही। उन्हें घर में ‘बाबूसाहब’ कहकर पुकारा जाता था। वे परीक्षा में सफल होते तो घर में उत्सव मनाया जाता था। इस अतिरिक्त लाड़-प्यार और राजसी ठाट-बाट में पला बसा।
पिता इंस्पेक्टर पद से उज्जैन में सेवानिवृत्त हुए। जब रिटायर हुए तब आर्थिक रूप से समृद्ध नहीं थे। वे न्यायनिष्ठ एवं ईमान पसंद शख्शियत के लिए प्रसिद्ध थे। लाड प्यार से पले मुक्तिबोध को आर्थिक संकट से जूझना पड़ा।जिससे जीवन के यथार्थ को बहुत नजदीक से जाने बुझे और समझे।
17 फरवरी 1964 को अकस्मात पक्षाघात हुआ और अन्ततः 11सितम्बर 1964 को प्राण त्याग दिए।
शिक्षा
इनके पिता पुलिस विभाग के इंस्पेक्टर थे। अक्सर उनका तबादला होता रहता था। इसीलिए मुक्तिबोध की पढाई में बाधा पड़ती रहती थी तथा आर्थिक तंगी से भी दो चार होना पड़ता था। प्रारम्भिक शिक्षा उज्जैन में हुई । 1938 में बी ए पासकर उज्जैन के मार्डन स्कूल में अध्यापक हो गए। है। 1954 में एम ए करने के बाद राजनांद गांव छत्तीसगढ़ (अविभाजित मध्यप्रदेश) के दिग्विजय कॉलेज में प्राध्यापक नियुक्त हुए। इस जीवन यात्रा में जीवन की वास्तविकता,व्यवस्था,राजनीति और सामाजिक सरोकार ने उनके जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। जो उनकी लेखनी में स्पष्ट रूप से मुखर होकर सामने आई। राजनांद गांव उनका केवल अध्यापन क्षेत्र ही नहीं रहा वरन् अध्ययन और लेखन की भूमि भी रही। जहां से मुक्तिबोध ने राष्ट्रीय साहित्यक क्षितिज में नई चेतना के साथ दस्तक दी।
साहित्यिक जीवन–
मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे। मनुष्य की अस्मिता, आत्मसंघर्ष और प्रखर राजनैतिक चेतना से समृद्ध उनकी कविता पहली बार ‘तार सप्तक’ के माध्यम से सामने आई, लेकिन उनका कोई स्वतंत्र काव्य-संग्रह उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो पाया। मृत्यु के पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी केवल ‘एक साहित्यिक की डायरी’ प्रकाशित की थी, जिसका दूसरा संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से उनकी मृत्यु के दो महीने बाद प्रकाशित हुआ। ज्ञानपीठ ने ही ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ प्रकाशित किया था। इसी वर्ष नवंबर 1964 में नागपुर के विश्वभारती प्रकाशन ने मुक्तिबोध द्वारा 1963 में ही तैयार कर दिये गये निबंधों के संकलन नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध’ को प्रकाशित किया था। परवर्ती वर्षो में भारतीय ज्ञानपीठ से मुक्तिबोध के अन्य संकलन ‘काठ का सपना’, तथा ‘विपात्र’ (लघु उपन्यास) प्रकाशित हुए। पहले कविता संकलन के 15 वर्ष बाद, 1980 में उनकी कविताओं का दूसरा संकलन ‘भूरी भूर खाक धूल’ प्रकाशित हुआ और 2985 में ‘राजकमल’ से पेपरबैक में छ: खंडों में ‘मुक्तिबोध रचनावली’ प्रकाशित हुई, वह हिंदी के इधर के लेखकों की सबसे तेजी से बिकने वाली रचनावली मानी जाती है। कविता के साथ-साथ, कविता विषयक चिंतन और आलोचना पद्धति को विकसित और समृद्ध करने में भी मुक्तिबोध का योगदान अन्यतम है। उनके चिंतन परक ग्रंथ हैं- एक साहित्यिक की डायरी, नयी कविता का आत्मसंघर्ष और नये साहित्य का सौंदर्य शास्त्र। भारत का इतिहास और संस्कृति इतिहास लिखी गई उनकी पुस्तक है। काठ का सपना तथा सतह से उठता आदमी उनके कहानी संग्रह हैं तथा विपात्रा उपन्यास है। उन्होंने ‘वसुधा’, ‘नया खून’ आदि पत्रों में संपादन-सहयोग भी किया।
प्रमुख लेखन —
कहानी ,कविता,निबंध,आलोचना,इतिहास और कविता संग्रह।
चांद का मुंह टेढ़ा है, भूरी भूरी ख़ाक धूल तथा तार सप्तक रचनाएं प्रकाशित,मुक्तिबोध रचनावली सात खण्ड ‘अँधेरे में’,काठ का सपना,क्लॉड ईथरली,जंक्शन,पक्षी और दीमक,प्रश्न,ब्रह्मराक्षस का शिष्य,लेखन,विपात्र सौन्दर्य के उपासक,एक साहित्यक डायरी, भारत इतिहास और संस्कृति आदि।
निधन —
17 फरवरी 1964 को अकस्मात पक्षाघात हुआ और अन्ततः 11सितम्बर 1964 को प्राण त्याग दिए।
पाठकों के लिए कविता और
एक कहानी —
गजानन माधव मुक्तिबोध
कविता –
“अँधेरे में ” के कुछ अंश गजानन माधव मुक्तिबोध
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अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब ।
पहुँचाना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने को मिलेंगी बाँहें
जिनमें कि प्रतिपल काँपता रहता
अरुण कमल एक।
……..
इसीलिए मैं हर गली में
और हर सड़क पर
झांक-झाँककर देखता हूँ हर चेहरा
प्रत्येक गतिविधि,
प्रत्येक चरित्र,
व हर एक आत्मा का इतिहास,
हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति
प्रत्येक मानवीय-स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति!!
………
खोजता हूँ पठार …पहाड़ …समुन्दर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-सम्भवा!
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रात, चलते हैं अकेले ही सितारे।
रात, चलते हैं अकेले ही सितारे।
एक निर्जन रिक्त नाले के पास
मैंने एक स्थल को खोद
मिट्टी के हरे ढेले निकाले दूर
खोदा और
खोदा और
दोनों हाथ चलते जा रहे थे शक्ति से भरपूर।
सुनाई दे रहे थे स्वर –
बड़े अपस्वर
घृणित रात्रिचरों के क्रूर।
काले-से सुरों में बोलता, सुनसान था मैदान।
जलती थी हमारी लालटैन उदास,
एक निर्जन रिक्त नाले के पास।
खुद चुका बिस्तर बहुत गहरा
न देखा खोलकर चेहरा
कि जो अपने हृदय-सा
प्यार का टुकड़ा
हमारी ज़िंदगी का एक टुकड़ा,
प्राण का परिचय,
हमारी आँख-सा अपना
वही चेहरा ज़रा सिकुड़ा
पड़ा था पीत,
अपनी मृत्यु में अविभीत।
वह निर्जीव,
पर उस पर हमारे प्राण का अधिकार;
यहाँ भी मोह है अनिवार,
यहाँ भी स्नेह का अधिकार।
बिस्तर खूब गहरा खोद,
अपनी गोद से,
रक्खा उसे नरम धरती-गोद।
फिर मिट्टी,
कि फिर मिट्टी,
रखे फिर एक-दो पत्थर
उढ़ा दी मृत्तिका की साँवली चादर
हम चल पड़े
लेकिन बहुत ही फ़िक्र से फिरकर,
कि पीछे देखकर
मन कर लिया था शांत।
अपना धैर्य पृथ्वी के हृदय में रख दिया था।
धैर्य पृथ्वी का हृदय में रख लिया था।
उतनी भूमि है चिरंतन अधिकार मेरा,
जिसकी गोद में मैंने सुलाया प्यार मेरा।
आगे लालटैन उदास,
पीछे, दो हमारे पास साथी।
केवल पैर की ध्वनि के सहारे
राह चलती जा रही थी।
*****
बहुत प्रसिद्ध रचना जिसने संसार को सांसारिक जीवन और मायावरी आडंबर से मुक्त कर सत्यता का बोध कराया और मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया।
ब्रह्मराक्षस का शिष्य
उस महाभव्य भवन की आठवीं मंजिल के जीने से सातवीं मंजिल के जीने की सूनी-सूनी सीढियों पर उतरते हुए, उस विद्यार्थी का चेहरा भीतर से किसी प्रकाश से लाल हो रहा था।
वह चमत्कार उसे प्रभावित नहीं कर रहा था, जो उसने हाल-हाल में देखा। तीन कमरे पार करता हुआ वह विशाल वज्रबाहु हाथ उसकी आँखों के सामने फिर से खिंच जाता। उस हाथ की पवित्रता ही उसके खयाल में जाती किन्तु वह चमत्कार, चमत्कार के रूप में उसे प्रभावित नहीं करता था। उस चमत्कार के पीछे ऐसा कुछ है, जिसमें वह घुल रहा है, लगातार घुलता जा रहा है। वह कुछ क्या एक महापण्डित की जिन्दगी का सत्य नहीं है? नहीं, वही है! वही है!
पाँचवी मंजिल से चौथी मंजिल पर उतरते हुए, ब्रह्मचारी विद्यार्थी, उस प्राचीन भव्य भवन की सूनी-सूनी सीढियों पर यह श्लोक गाने लगता है।
मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभवः श्यामास्तमालद्रुमैः – इस भवन से ठीक बारह वर्ष के बाद यह विद्यार्थी बाहर निकला है। उसके गुरू ने जाते समय, राधा-माधव की यमुना-कूल-क्रीडा में घर भूली हुई राधा को बुला रहे नन्द के भाव प्रकट किये हैं। गुरू ने एक साथ श्रृंगार और वात्सल्य का बोध विद्यार्थी को करवाया। विद्याध्ययन के बाद, अब उसे पिता के चरण छूना है। पिताजी! पिताजी! माँ! माँ! यह ध्वनि उसके हृदय से फूट निकली।
किन्तु ज्यों-ज्यों वह छन्द सूने भवन में गूँजता, घूमता गया त्यों-त्यों विद्यार्थी के हृदय में अपने गुरू की तसवीर और भी तीव्रता से चमकने लगी।
भाग्यवान् है वह जिसे ऐसा गुरू मिले!
जब वह चिडियों के घोंसलों और बर्रों के छत्तों-भरे सूने ऊँचे सिंहाद्वार के बाहर निकला तो एकाएक राह से गुजरते हुए लोग भूत भूत कह कर भाग खडे हुए। आज तक उस भवन में कोई नहीं गया था। लोगों की धारणा थी कि वहाँ एक ब्रह्मराक्षस रहता है।
बारह साल और कुछ दिन पहले —
सडक़ पर दोपहर के दो बजे, एक देहाती लडक़ा, भूखा-प्यासा अपने सूखे होठों पर जीभ फेरता हुआ, उसी बगल वाले ऊँचे सेमल के वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। हवा के झोकों से, फूलों के फलों का रेशमी कपास हवा में तैरता हुआ, दूर-दूर तक और इधर-उधर बिखर रहा था। उसके माथे पर फिक्रें गुँथ-बिंध रही थीं। उसने पास में पडी हुई एक मोटी ईंट सिरहाने रखी और पेड-तले लेट गया।
धीरे-धीरे, उसकी विचार-मग्नता को तोडते हुए कान के पास उसे कुछ फुसफुसाहट सुनाई दी। उसने ध्यान से सुनने की कोशिश की। वे कौन थे?
उनमें से एक कह रहा था, ”अरे, वह भट्ट। नितान्त मूर्ख है और दम्भी भी। मैंने जब उसे ईशावास्योपनिषद् की कुछ पंक्तियों का अर्थ पूछा, तो वह बौखला उठा। इस काशी में कैसे-कैसे दम्भी इकठ्ठे हुए हैं?
वार्तालाप सुनकर वह लेटा हुआ लडक़ा खट से उठ बैठा। उसका चेहरा धूल और पसीने से म्लान और मलिन हो गया था, भूख और प्यास से निर्जीव।
वह एकदम, बात करनेवालों के पास खडा हुआ। हाथ जोडे, माथा जमीन पर टेका। चेहरे पर आश्चर्य और प्रार्थना के दयनीय भाव! कहने लगा, हे विद्वानों! मैं मूर्ख हूँ। अपढ देहाती हूँ किन्तु ज्ञान-प्राप्ति की महत्वाकांक्षा रखता हूँ। हे महाभागो! आप विद्यार्थी प्रतीत होते हैं। मुझे विद्वान गुरू के घर की राह बताओ।
पेड-तले बैठे हुए दो बटुक विद्यार्थी उस देहाती को देखकर हँसने लगे; पूछा –
कहाँ से आया है?
दक्षिण के एक देहात से! …पढने-लिखने से मैंने बैर किया तो विद्वान् पिताजी ने घर से निकाल दिया। तब मैंने पक्का निश्चय कर लिया कि काशी जाकर विद्याध्ययन करूँगा। जंगल-जंगल घूमता, राह पूछता, मैं आज ही काशी पहुँचा हूँ। कृपा करके गुरू का दर्शन कराइए।
अब दोनों विद्यार्थी जोर-जोर से हँसने लगे। उनमें-से एक, जो विदूषक था, कहने लगा —
देख बे सामने सिंहद्वार है। उसमें घुस जा, तुझे गुरू मिल जायेगा। कह कर वह ठठाकर हँस पडा।
आशा न थी कि गुरू बिलकुल सामने ही है। देहाती लडक़े ने अपना डेरा-डण्डा सँभाला और बिना प्रणाम किये तेजी से कदम बढाता हुआ भवन में दाखिल हो गया।
दूसरे बटुक ने पहले से पूछा, तुमने अच्छा किया उसे वहाँ भेज कर? उसके हृदय में खेद था और पाप की भावना।
दूसरा बटुक चुप था। उसने अपने किये पर खिन्न होकर सिर्फ इतना ही कहा, आखिर ब्रह्मराक्षस का रहस्य भी तो मालूम हो।
सिंहद्वार की लाल-लाल बरें गूँ-गूँ करती उसे चारों ओर से काटने के लिए दौडी; लेकिन ज्यों ही उसने उसे पार कर लिया तो सूरज की धूप में चमकनेवाली भूरी घास से भरे, विशाल, सूने आँगन के आस-पास, चारों ओर उसे बरामदे दिखाई दिये — विशाल, भव्य और सूने बरामदे जिनकी छतों में फानूस लटक रहे थे। लगता था कि जैसे अभी-अभी उन्हें कोई साफ करके गया हो! लेकिन वहाँ कोई नहीं था।
आँगन से दीखनेवाली तीसरी मंजिल की छज्जेवाली मुँडेरे पर एक बिल्ली सावधानी से चलती हुई दिखाई दे रही थी। उसे एक जीना भी दिखाई दिया, लम्बा-चौडा, साफ-सुथरा। उसकी सीढियाँ ताजे गोबर से पुती हुई थीं। उसकी महक नाक में घुस रही थी। सीढियों पर उसके चलने की आवाज गूँजती; पर कहीं, कुछ नहीं!
वह आगे-आगे चढता-बढता गया। दूसरी मंजिल के छज्जे मिले जो बीच के आँगन के चारों ओर फैले हुए थे। उनमें सफेद चादर लगी गद्दियाँ दूर-दूर तक बिछी हुई थीं। एक ओर मृदंग, तबला, सितार आदि अनेक वाद्य-यन्त्र करीने से रखे हुए थे। रंग-बिरंगे फानूस लटक रहे थे और कहीं अगरबत्तियाँ जल रही थीं।
इतनी प्रबन्ध-व्यवस्था के बाद भी उसे कहीं मनुष्य के दर्शन नहीं हुए। और न कोई पैरों की आवाजें सुनाई दीं, सिवाय अपनी पग-ध्वनि के। उसने सोचा शायद ऊपर कोई होगा।
उसने तीसरी मंजिल पर जाकर देखा। फिर वही सफेद-सफेद गद्दियाँ, फिर वही फानूस, फिर वही अगरबत्तियाँ। वही खाली-खालीपन, वही सूनापन, वही विशालता, वही भव्यता और वही मनुष्य-हीनता।
अब उस देहाती के दिल में से आह निकली। यह क्या? यह कहाँ फँस गया; लेकिन इतनी व्यवस्था है तो कहीं कोई और जरूर होगा। इस खयाल से उसका डर कम हुआ और वह बरामदे में से गुजरता हुआ अगले जीने पर चढने लगा।
इन बरामदों में कोई सजावट नहीं थी। सिर्फ दरियाँ बिछी हुई थीं। कुछ तैल-चित्र टँगे थे। खिडक़ियाँ खुली हुई थीं जिनमें-से सूरज की पीली किरणें आ रही थीं। दूर ही से खिडक़ी के बाहर जो नजर जाती तो बाहर का हरा-भरा ऊँचा-नीचा, माल-तलैयों, पेडों-पहाडों वाला नजारा देखकर पता चलता कि यह मंजिल कितनी ऊँची हैं और कितनी निर्जन।
अब वह देहाती लडक़ा भयभीत हो गया। यह विशालता और निर्जनता उसे आतंकित करने लगी। वह डरने लगा। लेकिन वह इतना ऊपर आ गया था कि नीचे देखने ही से आँखों में चक्कर आ जाता। उसने ऊपर देखा तो सिर्फ एक ही मंजिल शेष थी। उसने अगले जीने से ऊपर की मंजिल चढना तय किया।
डण्डा कन्धे पर रखे और गठरी खोंसे वह लडक़ा धीरे-धीरे अगली मंजिल का जीना चढने लगा। उसके पैरों की आवाज उसी से जाने क्या फुसलाती और उसकी रीढ
क़ी हड्डी में-से सर्द संवेदनाएँ गुजरने लगतीं।
जीन खत्म हुआ तो फिर एक भव्य बरामदा मिला, लिपा-पुता और अगरू-गन्ध से महकता हुआ। सभी ओर मृगासन, व्याघ्रासन बिछे हुए। एक ओर योजनों विस्तार-दृश्य देखती, खिडक़ी के पास देव-पूजा में संलग्न-मन मुँदी आँखोंवाले ॠषि-मनीषि कश्मीर की कीमती शाल ओढे ध्यानस्थ बैठे।
लडक़े को हर्ष हुआ। उसने दरवाजे पर मत्था टेका। आनन्द के आँसू आँखों में खिल उठे। उसे स्वर्ग मिल गया।
ध्यान-मुद्रा भंग नहीं हुई तो मन-ही-मन माने हुए गुरू को प्रणाम कर लडक़ा जीने की सर्वोच्च सीढी पर लेट गया। तुरन्त ही उसे नींद आ गयी। वह गहरे सपनों में खो गया। थकित शरीर और सन्तुष्ट मन ने उसकी इच्छाओं को मूर्त-रूप दिया। ..वह विद्वान् बन कर देहात में अपने पिता के पास वापस पहुँच गया है। उनके चरणों को पकडे, उन्हें अपने आँसुओं से तर कर रहा है और आर्द्र-हृदय हो कर कह रहा है, पिताजी! मैं विद्वान बन कर आ गया, मुझे और सिखाइए। मुझे राह बताइए। पिताजी! पिताजी! और माँ अंचल से अपनी आँखें पोंछती हुई, पुत्र के ज्ञान-गौरव से भर कर, उसे अपने हाथ से खींचती हुई गोद में भर रही है। साश्रुमुख पिता का वात्सल्य-भरा हाथ उसके शीश पर आशीर्वाद का छत्र बन कर फैला हुआ है।
वह देहाती लडक़ा चल पडा और देखा कि उस तेजस्वी ब्राह्मण का दैदिप्यमान चेहरा, जो अभी-अभी मृदु और कोमल होकर उस पर किरनें बिखेर रहा था, कठोर और अजनबी होता जा रहा है।
ब्राह्मण ने कठोर होकर कहा, तुमने यहाँ आने का कैसे साहस किया? यहाँ कैसे आये?लडक़े ने मत्था टेका, भगवन्! मैं मूढ हूँ, निरक्षर हूँ, ज्ञानार्जन करने के लिए आया हूँ।
ब्राह्मण कुछ हँसा। उसकी आवाज धीमी हो गयी किन्तु दृढता वही रही। सूखापन और कठोरता वही।
तूने निश्चय कर लिया है?
जी!
नहीं, तुझे निश्चय की आदत नहीं है; एक बार और सोच ले! …ज़ा फिलहाल नहा-धो उस कमरे में, वहाँ जाकर भोजन कर लेट, सोच-विचार! कल मुझ से मिलना।
दूसरे दिन प्रत्युष काल में लडक़ा गुरू से पूर्व जागृत हुआ। नहाया-धोया। गुरू की पूजा की थाली सजायी और आज्ञाकारी शिष्य की भांति आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। उसके शरीर में अब एक नई चेतना आ गयी थी। नेत्र प्रकाशमान थे।
विशालबाहु पृथु-वक्ष तेजस्वी ललाटवाले अपने गुरू की चर्या देखकर लडक़ा भावुक-रूप से मुग्ध हो गया था। वह छोटे-से-छोटा होना चाहता था कि जिससे लालची चींटी की भाँति जमीन पर पडा, मिट्टी में मिला, ज्ञान की शक्कर का एक-एक कण साफ देख सके और तुरन्त पकड सके!
गुरू ने संशयपूर्ण दृष्टि से देख उसे डपट कर पूछा; सोच-विचार लिया?
जी! की डरी हुई आवाज!
कुछ सोच कर गुरू ने कहा, नहीं, तुझे निश्चय करने की आदत नहीं है। एक बार पढाई शुरू करने पर तुम बारह वर्ष तक फिर यहाँ से निकल नहीं सकते।
सोच-विचार लो। अच्छा, मेरे साथ एक बजे भोजन करना, अलग नहीं!
और गुरू व्याघ्रासन पर बैठकर पूजा-अर्चा में लीन हो गये। इस प्रकार दो दिन और बीत गये। लडक़े ने अपना एक कार्यक्रम बना लिय था, जिसके अनुसार वह काम करता रहा। उसे प्रतीत हुआ कि गुरू उससे सन्तुष्ट हैं।
एक दिन गुरू ने पूछा, तुमने तय कर लिया है कि बारह वर्ष तक तुम इस भवन के बाहर पग नहीं रखोगे?
नतमस्तक हो कर लडक़े ने कहा, जी!
गुरू को थोडी हँसी आयी, शायद उसकी मूर्खता पर या अपनी मूर्खता पर, कहा नहीं जा सकता। उन्हें लगा कि क्या इस निरे निरक्षर के आँखें नहीं है? क्या यहाँ का वातावरण सचमुच अच्छा मालूम होता है? उन्होंने अपने शिष्य के मुख का ध्यान से अवलोकन किया। एक सीधा, भोला-भाला निरक्षर बालमुख! चेहरे पर निष्कपट, निश्छल ज्योति!
अपने चेहरे पर गुरू की गडी हुई दृष्टि से किंचित विचलित होकर शिष्य ने अपनी निरक्षर बुध्दिवाला मस्तक और नीचा कर लिया।
गुरू का हृदय पिघला! उन्होंने दिल दहलाने वाली आवाज से, जो काफी धीमी थी, कहा, देख! बारह वर्ष के भीतर तू वेद, संगीत, शास्त्र, पुराण, आयुर्वेद, साहित्य, गणित आदि-आदि समस्त शास्त्र और कलाओं में पारंगत हो जावेगा। केवल भवन त्याग कर तुझे बाहर जाने की अनुज्ञा नहीं मिलेगी। ला, वह आसन। वहाँ बैठ।
और इस प्रकार गुरू ने पूजा-पाठ के स्थान के समीप एक कुशासन पर अपने शिष्य को बैठा, परंपरा के अनुसार पहले शब्द-रूपावली से उसका विद्याध्ययन प्रारम्भ कराया।
गुरू ने मृदुता ने कहा, — बोलो बेटे —
रामः, रामौ, रामाः
और इस बाल-विद्यार्थी की अस्फुट हृदय की वाणी उस भयानक निःसंग, शून्य, निर्जन, वीरान भवन में गूँज-गूँज उठती।
सारा भवन गाने लगा —
रामः रामौ रामाः — प्रथमा!
धीरे-धीरे उसका अध्ययन सिध्दान्तकौमुदी तक आया और फिर अनेक विद्याओं को आत्मसात् कर, वर्ष एक-के-बाद-एक बीतने लगे। नियमित आहार-विहार और संयम के फलस्वरूप विद्यार्थी की देह पुष्ट हो गयी और आँखों में नवीन तारूण्य की चमक प्रस्फुटित हो उठी। लडक़ा, जो देहाती था अब गुरू से संस्कृत में वार्तालाप भी करने लगा।
केवल एक ही बात वह आज तक नहीं जान सका। उसने कभी जानने का प्रयत्न नहीं किया। वह यह कि इस भव्य-भवन में गुरू के समीप इस छोटी-सी दुनिया में यदि और कोई व्यक्ति नहीं है तो सारा मामला चलता कैसे है? निश्चित समय पर दोनों गुरू-शिष्य भोजन करते। सुव्यवस्थित रूप से उन्हें सादा किन्तु सुचारू भोजन मिलता। इस आठवीं मंजिल से उतर सातवीं मंजिल तक उनमें से कोई कभी नहीं गया। दोनों भोजन के समय अनेक विवादग्रस्त प्रश्नों पर चर्चा करते। यहाँ इस आठवीं मंजिल पर एक नई दुनिया बस गयी।
जब गुरू उसे कोई छन्द सिखलाते और जब विद्यार्थी मन्दाक्रान्ता या शार्दूल्विक्रीडित गाने लगता तो एकाएक उस भवन में हलके-हलके मृदंग और वीणा बज उठती और वह वीरान, निर्जन, शून्य भवन वह छन्द गा उठता।
एक दिन गुरू ने शिष्य से कहा, बेटा! आज से तेरा अध्ययन समाप्त हो गया है। आज ही तुझे घर जाना है। आज बारहवें वर्ष की अन्तिम तिथि है। स्नान-सन्ध्यादि से निवृत्त हो कर आओ और अपना अन्तिम पाठ लो।
पाठ के समय गुरू और शिष्य दोनों उदास थे। दोनों गम्भीर। उनका हृदय भर रहा था। पाठ के अनन्तर यथाविधि भोजन के लिए बैठे।
दूसरे कक्ष में वे भोजन के लिए बैठे थे। गुरू और शिष्य दोनों अपनी अन्तिम बातचीत के लिए स्वयं को तैयार करते हुए कौर मुँह में डालने ही वाले थे कि गुरू ने कहा, बेटे, खिचडी में घी नहीं डाला है?
शिष्य उठने ही वाला था कि गुरू ने कहा, नहीं, नहीं, उठो मत! और उन्होंने अपना हाथ इतना बढा दिया कि वह कक्ष पार जाता हुआ, अन्य कक्ष में प्रवेश कर क्षण के भीतर, घी की चमचमाती लुटिया लेकर शिष्य की खिचडी में घी उडेलने लगा। शिष्य काँप कर स्तम्भित रह गया। वह गुरू के कोमल वृध्द मुख को कठोरता से देखने लगा कि यह कौन है? मानव है या दानव? उसने आज तक गुरू के व्यवहार में कोई अप्राकृतिक चमत्कार नहीं देखा था। वह भयभीत, स्तम्भित रह गया।
गुरू ने दुःखपूर्ण कोमलता से कहा, शिष्य! स्पष्ट कर दूँ कि मैं ब्रह्मराक्षस हूँ किन्तु फिर भी तुम्हारा गुरू हूँ। मुझे तुम्हारा स्नेह चाहिए। अपने मानव-जीवन में मैंने विश्व की समस्त विद्या को मथ डाला किन्तु दुर्भाग्य से कोई योग्य शिष्य न मिल पाया कि जिसे मैं समस्त ज्ञान दे पाता। इसीलिए मेरी आत्मा इस संसार में अटकी रह गयी और मैं ब्रह्मराक्षस के रूप में यहाँ विराजमान रहा।
तुम आये, मैंने तुम्हें बार-बार कहा, लौट जाओ। कदाचित् तुममें ज्ञान के लिए आवश्यक श्रम और संयम न हो किन्तु मैंने तुम्हारी जीवन-गाथा सुनी। विद्या से वैर रखने के कारण, पिता-द्वारा अनेक ताडनाओं के बावजूद तुम गँवार रहे और बाद में माता-पिता-द्वारा निकाल दिये जाने पर तुम्हारे व्यथित अहंकार ने तुम्हें ज्ञान-लोक का पथ खोज निकालने की ओर प्रवृत्त किया। मैं प्रवृत्तिवादी हूँ, साधु नहीं। सैंकडों मील जंगल की बाधाएँ पार कर तुम काशी आये। तुम्हारे चेहरे पर जिज्ञासा का आलोक था। मैंने अज्ञान से तुम्हारी मुक्ति की। तुमने मेरा ज्ञान प्राप्त कर मेरी आत्मा को मुक्ति दिला दी। ज्ञान का पाया हुआ उत्तदायित्व मैंने पूरा किया। अब मेरा यह उत्तरदायित्व तुम पर आ गया है। जब तक मेरा दिया तुम किसी और को न दोगे तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं।
शिष्य, आओ, मुझे विदा दो।
अपने पिताजी और माँजी को प्रणाम कहना। शिष्य ने साश्रुमुख ज्यों ही चरणों पर मस्तक रखा आशीर्वाद का अन्तिम कर-स्पर्श पाया और ज्यों ही सिर ऊपर उठाया तो वहाँ से वह ब्रह्मराक्षस तिरोधान हो गया।
वह भयानक वीरान, निर्जन बरामदा सूना था। शिष्य ने ब्रह्मराक्षस गुरू का व्याघ्रासन लिया और उनका सिखाया पाठ मन-ही-मन गुनगुनाते हुए आगे बढ ग़या।
•गणेश कछवाहा, रायगढ़, छत्तीसगढ़
•94255 72284
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