कविता आसपास : ठाकुर हूप सिंह क्षत्रिय
🌸 यूँ ही बस, मेरी कलम से…
– ठाकुर हूप सिंह क्षत्रिय
[ तखतपुर, मुंगेली, जिला – बिलासपुर, छत्तीसगढ़ ]
जब पीड़ा ही वरदान रहा, अपना उर कैसे मैं सी लूँ ?
फिर चाँद वही नभ में आया,
फिर तारे वही छिटकते हैं
फिर यादें वो पूनम वाली,
मुझको आ आकर डसते हैं
तुम आओ मेरे पास वहीं, मरते मरते फिर से जी लूँ !
मधु ले मालती पवन पागल,
अंचल में अभी विहरता है
चाँदनी विभा में व्याकुल मन,
रह रहकर किंतु सिहरता है
मदिरापूरित इन घड़ियों को, तेरे बिन कैसे मैं पी लूँ ?
क्या वहाँ चाँद नहीं आता है ?
क्या महानिशा नहीं आती है ?
क्या नहीं बसन्ती-पीर लिए,
मेरी स्मृतियाँ आतीं हैं ?
यह सोच वेदना बढ़ जाती, अब आह जरा भर गहरी लूँ !
उर=हृदय. मालती=एक लता जिसके फूलों से मीठी सुगंध आती है, चंद्रमा का प्रकाश, चाँदनी. अंचल=क्षेत्र. विहरना=विहार करना, घूमना फिरना. विभा=सौंदर्य, चमक, आभा. महानिशा=मध्य रात्रि, रात्रि का दूसरा और तीसरा प्रहर. बसन्ती-पीर=मधुर पीड़ा, मीठा दर्द.
आह भरना=कराहना, वेदना प्रकट करने के लिए मुँह से आवाज निकालना.
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