साहित्य : दिलशाद सैफी
2 years ago
247
0
🌸 ये गांव का चूल्हा
– दिलशाद सैफी
[ रायपुर छत्तीसगढ़ ]
वो गांवों के घरों के खपरैलो से अब धुंआ उठता नहीं है
इन्हीं धुंओं की धूनी से भागने लगते थे
ये हठीले मच्छर
मक्खियां भी नहीं भिनभिनाती थी वहां के ओसारो में
इन चूल्हों से उठने वाले धुंओं से दरो दीवार रंगा रहता था
और परोसे हुए खाने के स्वाद से पूरा परिवार बंधा रहता था
पौ फटते अलसुबह पानी पड़ते ही मिट्टी की महक बिखरती थी
आंख खुलते ही दादी मक्खन,घी, दही बिलोती रहती थी
अब इन आधुनिक संसाधनों से खाने झटपट बन जाते हैं
मगर इसे खाने वालों के मन कहां भर पाते हैं
अब घंटे भर चूल्हे की आग में तपना किसे भाता है
फटाफट पल-भर में पिज्जा बर्गर जो आ जाता है
धुंएँ में सिकी रोटी, हाँडी की दाल,आलू बड़ी ललचाती है
वो गांव के चूल्हे की जाने क्यों अब भी याद आती है.
•संपर्क –
•62678 61179
🌸🌸🌸🌸🌸