कविता आसपास : संध्या श्रीवास्तव [भिलाई – दुर्ग, छत्तीसगढ़]
🌸 मैं इक बेजुबाँ फूल
मैं इक बेजुबां फूल….
बागों में खिल कर भी
तुम्हारे दिल की हर बात समझ जाता हूं मैं
नैतिक बंधन में बंधे षब्दों को भी
बिन षब्दों के अभिव्यक्ति कर जाता हूं मै।ं
मैं इक बेजुबां फूल
कभी तोहफों में हंसता
कभी मन मे महकता
कभी सेंहरे में सज मुस्कुराता
कभी सेज में सज स्मृतियों में बस जाता
कभी दिल ही दिल में खिले दो दिलों को मिलाता
फिर जिंदगी की किताब में छिपे सूखे फूल की तरह
तुम्हारा इक राजदार बन रह जाता हूं मैं
जिगरी दोस्त की तरह दोस्ती का फर्ज दिल से निभाता हूं मैं मैं इक बेजुबां फूल ..
।
मैं इक बेजुबां फूल ..
समय की राख के नीचे
दबी प्रेम की चिंगारी को
तंदूर की तरह दहका सकता हूं
तो दहकतें दिल की आग को
षीतल परिमल में परिवर्तित भी कर सकता हूं
संघर्ष में प्रेरणा ,दुख में सांत्वना।
आस्था में अर्पण,प्रार्थना में सर्मपण,।
षुभ विवाह में जयमाला और हार
नववधु का श्रृंगार
, हर बार तुम्हारे हृदय का उद्गार बन जाता हूं मैं।
प्रेम की मनुहार में गजरों की लड़ियां बन कर
प्रेयसी की काली लहराती अलकों में सज कर
मन ही मन उसके मन के मनाता हूं मैं।
मैं इक बेजुबां फूल …
पष्ुपाजलि से लेकर श्रद्धांजलि तक
हर बार हृदय की बात हृदय तक पहुंचाता हूंॅ
पर अपने दिल की कभी किसी से नहीं कह पाता हूॅं
दिल की बात दिल ही में रखकर खामोषी से
दिल ही दिल में रोकर चुप हो जाता हूं मैं।
मैं इक बेजुबां फूल …
मैं इक बेजुबां फूल ..
अपने दिल का दर्द
आज तुम्हें बतलाता हूं
इस मैली कुचैली धरा पर
दुर्गंध प्रदूशण सड़न के आलम में
मलबा कीचड़ गंद लिये नदी नालों में
ताज़ी हवा के झोंको को तरस जाता हूंॅ मैं
धुआं धूल लू लपट के थपेड़ों में अपने आप को
झुलसाता पाता हूंॅ
तो सच कहता हूंॅ मन ही मन तड़प तड़प पछताता हूं मैं।
. चाहता हूं बस एक बार
बस एक बार
मेरे दिल की बात को
दे दो तुम अपनी जुबान
गुंजाओ मेरा ये संदेषा धरती आसमां
चलाओ पर्यावरण संरक्षर अभियान
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🌸 नि:शब्द
कुछ आंसू बन बह जायेंगे
कुछ निःशब्द हमें सतायेंगें
कभी सूनेपन में खनकेंगे
कभी अंधियारे में चमकेंगे
कुछ ओठों पर खिल जायेंगे।
कुछ मन ही मन मुस्काएंॅगे।
उनमें से शायद कोई
शब्द तुम्हारा भी होगा।।
हांॅ माना मैने- शब्दों में है शूल छिपे
तो शब्दों से क्या- अमृत निर्झर नहीं बहे?
हां माना मैने -शब्दों में है तीर भरे
पर शब्दों से ही फूल झरे।
क्या रक्खा है तानों में
बिन बातों की इन बातों में।।
शब्दों में है
शीर
शब्दों में ही पीर
तो हो जाओ गंभीर।
शब्दों को तौलो, फिर बोलो
शब्दों में शब्दों की, शक्कर घोलो
कडुआहट दिल की धो लो।
निष्छल मन में न दो छल को स्थान
देखो देख रहा भगवान।।
तो सोचो समझो जानो
शब्दों की शक्ति को पहचानो।
शब्दों में है गीत, शब्दों में संगीत
शब्दों में बहा लो प्रीत, हर धर्म की यही एक रीत।
न तुम यहां रह पाओगे, न हम यहां रह जायेंगे।
ये शब्द यहीं रह जायेंगे, निःशब्द याद दिलायेंगे।
कभी आंसू बन जायेंगे, कभी ओठों पर खिल जायेंगे।
उनमें से शायद कोई शब्द तुम्हारा भी होगा।
तुम्हारा……..भी होगा।।
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