कविता आसपास : रंजना द्विवेदी [रायपुर छत्तीसगढ़]
🌸 आईना
एक दिन आईने के सामने गई
सोचा थोड़ा संवार लूं खुद को
बहुत अरसा हुआ
थोड़ा निहार लूं खुद को
जानती थी आईना कभी झूठ नही कहता
फिर भी एक आस लिए मन मे
चली गई उसके पास
एक बार पहचान लूं खुद को
क्योंकि एक वही है जो मुझे
मुझसे बेहतर जानता है
मेरे हर भाव को पहचानता है
मेरे चेहरे पर पड़ी एक एक लकीर का
गवाह हैं वो
बचपन से लेकर बड़े होने तक
हम दोनो के मध्य आत्मीय संबंध रहा
हर बार पहुंच जाया करती थी मैं उसके पास
मेरे मौन प्रश्न को समझ वो
स्वयं ही हंसकर उत्तर दे देता
आज जाने क्यों उसके सामने जाने मे
मन भयाकुल हो रहा है
एक झिझक सी हो रही हैं
क़दम आगे बढ़ने को तैयार नहीं
क्योंकि हम दोनो जानते हैं कि जीवन के
जीवन के ऊहापोह मे कितनी दूरियां
आ गई है दोनो के दर्मियां
मात्र औपचारिकता ही तो शेष है
मुझे भय है गर उसके सामने गई तो
मेरे जीवन के बीते हर तार छेड़ेगा
हर कड़ी को उधेड़ेगा
मेरे व्यक्तित्व की हर बात को गुनेगा
जो न होकर भी मैं बन गई
नहीं सुना जायेगा मुझसे उसका ये कटाक्ष
क्योंकि सच मै सुनना नही चाहती
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