कविता आसपास : गणेश कछवाहा [रायगढ़ छत्तीसगढ़ ]
1.
मैं
चलूंगा
हां अकेले ही
चलूंगा
ज़रूर चलूंगा।।
पैरों पर
छाले ही तो पड़ेंगे
मुझे
भूखे,नंगे पांव ही
चलने दीजिए
एक नया इतिहास
रचने दीजिए।
जिन दीन दुखियों,
या तुम
जिसे छोटा या निम्न
मानते – समझते हो
मुझे उनसे
दूर रखना चाहते हो,
ये झोपड़ियां
गंदे, कुचैले,
ठेगड़ी, रफू किए
वस्त्र पहने,
ये कंकड़ ,पत्थर,
कीचड़,गड्ढे,और
गटर में
जीवन को तलाश करने
वाले लोग
यही मेरे सच्चे मित्र हैं।
और मेरी प्रेरणा हैं।
मुझे नहीं चाहिए
तुम्हारी प्रशंसा और
पुरस्कार।
पांच सितारा होटल में
बैठकर
मैं तुम्हारे साथ
नहीं कर सकता
डिनर।
मैं
बोतल बंद पानी की जगह
नगर निगम के नल का
पानी पी कर
मां के हाथों की
बनी रोटी खाकर
गांधी,अंबेडकर,
सुभाषचंद्र,भगतसिंह,
की प्रतिमा के नीचे बैठकर
पूरी वैचारिक
ताकत समेटे
संपूर्ण ऊर्जा के साथ
हाथों में तख्ती लिए
आवाज बुलंद करता रहूंगा।
और
परचम
लहराता रहूंगा।
मैं
चलूंगा
हां ज़रूर चलूंगा।
कंकड़ ,पत्थर,
कीचड़,गड्ढे,गटर के संग
पुरस्कार या
दरबार में ओहदा देने वाले
मेरी मौत के बाद
ज्यादा से ज्यादा
शोक सभा करायेंगे
बड़े बड़े फोटो के साथ
शोक संवेदना छपवायेंगे
और
सारे सुंदर सपनो,
जिजीविषा और जीवन को
दफ़न कर देंगे
मुझे उम्मीद है
एक दिन
सब चलेंगे
साथ साथ चलेंगे
तब
अपने हृदय में समेटे
सुंदर सपनो और
बेहतर जीवन के साथ
खुशियों के परचम को
शान से लहरायेंगे
और
एक नया इतिहास रचेंगे।
2.
यह शहर
खामोश है,
वीरान नहीं/
शमशान नहीं।
केवल एक ही काफी है
इस खामोशी को
तोड़ने के लिए।
हर शख्स
इस खामोशी को
तोड़ सकता है।।
दरबारी/
भाट/
कलम और
अपने ज़मीर को
पूंजी और सत्ता के चौखट पर
समर्पण करने वालों,
पाश्चात्य संस्कृति में डूबकर
कमर मटकाने /
जाम छलकाने,
भूख , पीड़ा और तड़पन
के मंच पर
मंहगे जूते और टाई पहनकर
नाचने वालों
चीखती/ कराहती /आवाजों
की खामोशी
तुम्हें सुनाई नहीं देती।
जब यह खामोशी टूटेगी
तुम्हारे
कानों के पर्दों का
चिथड़ा भी नहीं मिलेगा
तुम
कांप ही नहीं जाओगे
तुम्हारी धड़कन
तुम्हारी खुद की सांसे भी
सुनाई नहीं पड़ेगी।
वरन
सारे महल, किले /सपने
डह जायेंगे
तब
तुम्हें बचाने वाला भी
कोई नहीं होगा।
यह शहर
खामोश है।
वीरान नहीं,
शमशान नहीं
यहां इंसान रहते हैं
जी हां
इंसान रहते है
जो इंसानियत का
गीत गाते हैं।
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