कविता, शरद पूर्णिमा- गीता विश्वकर्मा ‘नेह’, कोरबा-छत्तीसगढ़
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शरद पूर्णिमा का गीत
चाँदनी छिटकी शरद की
खिड़कियों से आ रही,
मुग्ध है मन,दृष्टि को भी
आह कितना भा रही ।
बह रही शीतल बयारें
एक मीठी गंध ले,
नैन बातें कर रहा है
चाँद से अनुबंध ले,
देह में अनुराग सा भरने
लगी यह यामिनी,
खिल रहा है पुष्प सा हिय
कौमुदी है कामिनी,
श्वेत वसना इक परी सी
ज्योंत्स्ना मुस्का रही ।
खींचती सुधियाँ निरंतर
हर्ष से भर ध्यान को,
दिव्य परियाँ हैं उतरती
ताल पर स्नान को,
यह कथा सच है कि कल्पित
मन कुतूहल कर रहा,
दर्द चकवा और चकवी
का हृदय में भर रहा,
गुनगुनाहट भी अधर की
शोक करुणा गा रही ।
चंद्र आभा से प्रफुल्लित
है निशा में यह धरा
पत्तियों से ओसकण गिरता
अचानक झरझरा
रातरानी कुमुदिनी लीली
कमल के फूल से
रात महकी है शरद की
मन हुआ अनुकल से
प्रीत की उष्मा बदन को
छू बहुत बहका रही ।
chhattisgarhaaspaas
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