कविता आसपास : विद्या गुप्ता [दुर्ग छत्तीसगढ़]
हम चलेंगे साथ – साथ
हम चलेंगे साथ-साथ
मैं तुम्हारी जमीन हूं
सच मानो प्रिये
वहशी नहीं हूं. मैं…..!!
मैं मेरा ह्रदय
तुम्हारा अधिकार है
जिस पर शासन करती हो तुम
और स्वयं को भूल जाता हूं मै
तुम्हारी खुशी के लिए स्वयं को
बंदी बना लेता हूं मैं
क्या यह सच नहीं की
भय से कांपता तुम्हारा मन
जब खोजता है सुरक्षा
तुम दौड़ कर गिलहरी सी
समा जाती हो मेरे सीने में
और मैं बांहों में समेट
तुम्हें करता हूं आश्वस्त
मैं मानता हूं
मैं दोषी हूं तुम्हारा
क्योंकि
स्वयं को झुकाए रखने की ,
पीड़ा को पीते रहने की
तुम्हारी आदत ने
अहंकारी बना दिया मुझे
मुझे आदत सी हो गई
तुम्हारी झुकी-झुकी आंखें
घुटनों में धंसा सिर
जुड़ी उंगलियों में फंसी याचना …
सहसा सह नहीं पाता हूं मैं
तुम्हारी फैली हुई हथेलियों का
मुट्ठी में तन जाना
सच मानो प्रिये
तुम शून्य सी झुकती गई
और मैं अंक सा तनता गया
तुम्हारे सूरज चांद को
संचालित करता
मेरा पति परमेश्वर
आज सहन नहीं कर पाता
अपने कांधे के पास ऊंगा
तुम्हारा कांधा
मैं बर्दाश्त नहीं कर पाता
तुम्हारे निरुत्तर चेहरे पर
प्रश्न का उग आना
तुम्हारी समर्पित मुद्रा का
चट्टानों में बदल जाना
मान जाओ प्रिये
हम चलेंगे साथ-साथ
एक दूसरे को भरते हुए
हंसते हुए
जैसे- देह के बगैर नहीं होती
प्राणों की सार्थकता
वैसे ही प्राणों के बगैर
वजूद हीन हो जाती है देह भी.
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