कविता, आज़ दीपावली है- अंशुमन राय, इलाहाबाद-उत्तरप्रदेश
आज दीपावली है ?
क्या आज़ दीपावली है ?
जरा पता तो करुं कि क्या आज़ दीपावली है ?
झरोखा से देखा तो वही पुराना दृश्य,
काम करते हुए मज़दूर,
धूल में खेलते उनके बच्चे ।
हाड़तोड़ मेहनत करता शरीर,
जिंदगी के संघर्ष में खोता बचपन.
आज़ दीपावली है ?
क्या आज़ दीपावली है ?
जरा पता तो करुं कि क्या आज़ दीपावली है ?
अब खिड़की से झांककर देखा,
कुछ पटाखा बजाते हुए बच्चे दिखे,
कुछ ग्राहक के इंतजार में लाई-लावा बेचने वाले दिखे,
आज़ दीपावली है ।
जी हां ! आज़ दीपावली है ।
कोई छत पर झालर लगा रहा है,
कोई मोमबत्ती औऱ दीये का इंतजाम कर रहा है,
कोई पटाखा लेने जा रहा है,
कोई अपने बच्चों का राह देख रहा है ।
आज़ दीपावली है ।
जी हां ! आज़ दीपावली है ।
धूल में खेलता बचपन औऱ पटाखे बजाता बचपन,
का मिलन हो गया है ।
हाड़ तोड़ मेहनत करते मज़दूरों के हाथ में,
मिठाई औऱ दीये दिखने लगे हैं ।
जी हां ! आज़ दीपावली है ।
आज़ दीपावली है.
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