कविता आसपास : डॉ. प्रेम कुमार पाण्डेय [केंद्रीय विद्यालय, वेंकटगिरी, आंध्रप्रदेश]
▪️ हौसला
घुप्प अंधेरी
भयावह सुरंग में फंसे
बिलबिलाते
बाहुबली छीन लेना चाहता है
धरती- आकाश
बेदखल कर देना चाहता है
सुकून और वजूद से।
पैसा खींच रहा पैसे को
चुम्बक की तरह
सभी का अस्तित्व समा रहा
सुरसा के विशालकाय
अपरिमित मुख-विवर में।
बज रहे हैं ढोल-नगाड़े
तैयारी है सूरज को निगलने की
अब नहीं बचा
आंजनेय-सा विवेक
खाये धरती पर तरस
मुहब्बत हो उजाले से।
प्रथम पुरुष की तरह
हो गये हैं सब गूंगे-बहरे
सूनी निर्मिमेष अक्षि
एकटक गड़ी शून्य में
बस एक जुगनू टिमटिमा रहा
सर्वहारा होने के बाद भी
नहीं डाल सकता कोई डकैती
इंसानी हौसले पर।
▪️ आओ! गिद्धों आओ
अयोध्या के आकाश पर
मंडराने लगे हैं गिद्ध
कई योजन दूर से गिद्ध दृष्टि ने तलाशी है संभावना
अनभ्यास वश
नहीं बैठते छतों पर
मडरा रहे हैं अनवरत
निर्मिमेष
कैमरों ने उतर दिए हैं
लैंस के सुरक्षा आवरण
संगीने खिंच गई हैं
गिद्ध यूंही नहीं आते
गिद्ध गलत नहीं होते
मिलेगा, मिलेगा जरूर मिलेगा
जिन्दा या मुर्दा
मिलेगा जरूर
चोंच का पैना पन
कर रहा इंतजार
मिलेगा, मिलेगा
जरूर मिलेगा।
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