कविता आसपास : पल्लव चटर्जी
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गुजराती जा रही है रात
– पल्लव चटर्जी
[ भिलाई : छत्तीसगढ़ ]
अभी रात के दस ही बजे हैं
मगर बर्फीली ठंड ने इसे गहरी
और सन्नाटे में तबदील कर दिया है…
सारे गृहस्थ खा-पीकर
अपने-अपने हिस्से के
लिहाफ में सिकुड़-सिमट गये हैं।
मच्छरों से बचने के लिए
मच्छरदानियाँ,अगरबत्तियाँ,
आॅल आउट,गुड नाइट,माॅर्टिन ब्राँड के उपकरण,
नीम की पत्तियों का धुँआ
इस्तेमाल हो रहा है…
जिन सिनेमाघरों में
हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म का
आखिरी शो चल रहा है.. उसके बाहर
आटो वाले,रिक्शावाले
कचरों की ढेर में
ठंड से जूझने की आग ढूँढ रहे हैं
ताकि आखिरी ग्राहक को
मंजिल तक पहुँचाते
रंगों का खून गर्म रहे…
उम्र फुटपाथ पर गुजा़रती
अँधी भिखारिन
की भात की हाँडी से
निकलती गंध ने
आसपास के कुत्तों तक
सूचना पहुँचा दी है
उसके लिए तो वे ही हमनिवाला,हमपियाला,निगेहबाँ है
बस इसी तरह
मेरे शहर की ठिठुरन भरी रात
गुज़रती जाती है।
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