कवि और कविता : डॉ. प्रेम कुमार पाण्डेय
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हौसला
घुप्प अंधेरी
भयावह सुरंग में फंसे
बिलबिलाते
बाहुबली छीन लेना चाहता है
धरती- आकाश
बेदखल कर देना चाहता है
सुकून और वजूद से।
पैसा खींच रहा पैसे को
चुम्बक की तरह
सभी का अस्तित्व समा रहा
सुरसा के विशालकाय
अपरिमित मुख-विवर में।
बज रहे हैं ढोल-नगाड़े
तैयारी है सूरज को निगलने की
अब नहीं बचा
आंजनेय-सा विवेक
खाये धरती पर तरस
मुहब्बत हो उजाले से।
प्रथम पुरुष की तरह
हो गये हैं सब गूंगे-बहरे
सूनी निर्मिमेष अक्षि
एकटक गड़ी शून्य में
बस एक जुगनू टिमटिमा रहा
सर्वहारा होने के बाद भी
नहीं डाल सकता कोई डकैती
इंसानी हौसले पर।
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आवारा
इच्छाओं के पंख बांध
रंगीन सपनों से सनी
यत्र-तत्र-सर्वत्र
दोलती
लड़ती-भिड़ती
मरती-मारती
चटनी-सी
हर्ष-विषाद चाटती
आवारा पतंग
गली में मटरगस्ती करते
बच्चे की तरह
बाप की एक पुकार पर
छत पर क्यों खड़ी हो?
उतर आती है
जीने से
धीरे-धीरे
हौले-हौले नीचे
आज्ञाकारी बिटिया की तरह।
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बेरहम
मिलने का सुख
बिछुड़ने के दुख से
बहुत बौना है
ठीक वैसे ही जैसे
मौत ज़िन्दगी से
बड़ी दिखती है
या यूं कहें
आदमी से बड़ी दिखती है
उसकी छाया।
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ज़रूरी
खिलौनों से ज्यादा ज़रूरी हैं
खिलखिलाते बच्चे।
ग्रंथों से भी ज्यादा ज़रूरी हैं
अन्न के भण्डारागार।
तमाम चकाचौंध से ज़रूरी हैं
पनियल श्वेद-बिन्दु।
तमाम ज़रूरी कामों से ज़रूरी है
अण्डे सेती चिड़िया।
और जानते हो
राज की बात बताऊं
लिखने से भी ज्यादा ज़रूरी है
जीवन।
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डॉ.प्रेमकुमार पाण्डेय प्रगतिशील कवि हैं. आप केंद्रीय विद्यालय वेंकटगिरि आंध्रप्रदेश में सेवारत हैं.
•संपर्क- 98265 61819
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