






रचना आसपास : अरुण कुमार निगम

तब फागुन, फागुन लगता था
-अरुण कुमार निगम
[ दुर्ग, छत्तीसगढ़ ]
चौपाल फाग से सजते थे
नित ढोल -नंगाड़े बजते थे
तब फागुन ,फागुन लगता था
यह मौसम कितना चंचल था.
तब फागुन, फागुन लगता था
यह मौसम कितना चंचल था.
गाँव में बरगद– पीपल था
और आस-पास में जंगल था
मेड़ों पर खिलता था टेसू
और पगडण्डी में सेमल था.
तब फागुन, फागुन लगता था
यह मौसम कितना चंचल था.
अंतस में प्रेम की चिंगारी
हाथों में बाँस की पिचकारी
थे पिचकारी में रंग भरे
और रंगों में गंगा-जल था.
तब फागुन, फागुन लगता था
यह मौसम कितना चंचल था.
हर टोली अपनी मस्ती में
थी धूम मचाती बस्ती में
न झगड़ा था,न झंझट थी
और न आपस में दंगल था.
तब फागुन, फागुन लगता था
यह मौसम कितना चंचल था.
कोई देवर संग,कोई साली संग
कोई अपनी घरवाली संग
थे रंग खेलते नेह भरे
हर रिश्ता कितना उज्जवल था.
तब फागुन, फागुन लगता था
यह मौसम कितना चंचल था.
हर घर खुशबू पकवानों की
दावत होती मेहमानों की
तब प्रेम-रंग से रँगा हुआ
जीवन का मानो हर पल था.
तब फागुन, फागुन लगता था
यह मौसम कितना चंचल था.
अब प्रेम कहाँ,अब रंग कहाँ
वह निश्छल,निर्मल संग कहाँ
इस युग की होली “आया – सी ”
वह युग ममता का आँचल था .
तब फागुन, फागुन लगता था
यह मौसम कितना चंचल था.
• संपर्क-
• 99071 74334
chhattisgarhaaspaas
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