ग़ज़ल -शुचि ‘भवि’

4 years ago
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किसी ख़ुशी से इन्हें अब ख़ुशी नहीं मिलती
किसी भी चेहरे की रंगत खिली नहीं मिलती

लिखा था तुमने जो ख़त में हमारा नाम कभी
उन्हीं से अब ये लिखावट सही नहीं मिलती

चराग़ इतने जले दिल दमक उठा और अब
कोई भी शमअ कहीं भी बुझी नहीं मिलती

गिरे नहीं हैं जो मेयार से सियासत में
करें वो कुछ भी ये कुर्सी कभी नहीं मिलती

गुनाहगार यहाँ घूमते हैं मस्ती में
कि निर्भया को सुरक्षित गली नहीं मिलती

थे ‘भवि’ वो कितने ही मासूम जब मिले हमसे
मगर अब उनसी कहीं भी ठगी नहीं मिलती

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