होली विशेष : प्रो. अश्विनी केशरवानी
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ससुराल में होली : होली का त्योहार मनाएं, ले लेकर अबीर झोली में
– प्रो. अश्विनी केशरवानी
[ चांपा : छत्तीसगढ़ ]
होली केवल हिन्दुओं का ही नहीं वरन् समूचे हिन्दुस्तान का त्योहार है। इस त्योहार को सभी जाति और सम्प्रदाय के लोग मिल जुलकर मनाते हैं। इसमें जात-पात कभी आड़े नहीं आती। सारी कटुता को भूलकर सब इसे मनाते हैं। इसे एकता, समन्वय और सद्भावना का राष्ट्रीय पर्व भी कहा जाता है। होली के आते ही धरती प्राणवान हो उठती है, प्रकृति खिल उठती है और कवियों का नाजुक भावुक मन न जाने कितने रंग बिखेर देता है अपनी गीतों में, देखिए एक बानगी:-
होली का त्योहार मनायें
ले लेकर अबीर झोली में
निकले मिल जुलकर टोली में
बीती बातों को बिसराकर
सब गले मिलें होली में
पिचकारी भर भरकर मारें
सबको हंसकर तिलक लगायें
आओ मिलकर होली मनायें।
होली का लोक जीवन से जितना गहरा सम्बंध है, उतना किसी अन्य त्योहार से नहीं है। इस त्योहार पर तो जीवन खुशी से उन्मत्त हो जाता है। वास्तव में ग्राम्य जीवन का उल्लास यदि फसल कटने के बाद नहीं बहेगा तो कब बहेगा ? घर धन-धान्य से भरा है और कोठी गौओ से। साल भर के बाद होली आई है पाहुन बनकर। यदि इसके आगमन पर खुशी नहीं मनाई जायेगी तो कब मनाई जायेगी..? ऐसे अवसर पर लोक जीवन खुलकर रंग रेलिया मनाता है, खुशी से बावला होकर नाचता और गाता है। ग्राम्य जीवन में किसान नई फसल की बाली को भूनकर सामूहिक रूप से खाते और गाते हैं। छत्तीसगढ़ में धारणा है कि नये अन्न को खाने के पहले अग्नि देव को भेंट किया जाना जरूरी है। मानव ग्रह्य सूत्र में भी उल्लेख है कि ‘नये अन्न को यज्ञ को समर्पित किये बिना न खायें’ अग्नि में भूनी बालियों केा ‘होला’ या ‘होलक’ कहा जाता है। संस्कृत भाषा में भी अधपके भूने हुए अनाज को ‘होलक’ कहा जाता है। संभवतः इसी होलक को आधार मानकर इस पर्व को ‘होली’ कहा जाने लगा..? रोजमर्रा की जिन्दगी से मुक्ति, आपाधापी से भरी जिन्दगी का एक रस, उबाऊ ढर्रा, पनपता विद्वेष, उफनती हिंसा, अपनो से दूरी, अभाव, अनमनापन, सब कुछ भुला देती है- होली, जब माथे पर लगता है अबीर और मन में चढ़ती है रंग की बौछार। हसरत रिसालपुरी फागुन के इस मदमाते रंग में डूबे हुए हैं। हौले हौले मुख पर अबीर और गुलाल लगाकर नयनों से नयन मिलाकर दूसरों को आत्म ज्ञान का संदेश दे रहे हैंः-
मुख पर गुलाल लाल लगाओ
नयनयन को नयनों से मिलाओ
बैर भूलकर प्रेम बढ़ाओ
सबको आत्म ज्ञान सिखाओ
आओ प्यार की बोली बोले
हौले हौले होली खेले।
मुझे एक वाकिया याद आ रहा है, जब मेरी नई नई शादी हुई थी। मेरी नई नवेली धर्मपत्नी कल्याणी मायके में थी। ऐसी मान्यता है कि नई नवेली दुल्हनों को पहली होली मायके में मनानी होती है। इसी के चलते वह अपने मायके में थी । मुझे ससुराल में होली खेलने का आत्मीय आमंत्रण मेरी साली की ओर से मिला और मैं ससुराल में होली मनाने की ललक को नहीं रोक सका। ससुराल में मेरी अच्छी खातिरदारी हुई शायद नये दामाद होने के कारण ऐसा हुआ हो अथवा कल्याणी के साथ मेरी भी पहली होली थी। जो भी हो, रात्रि में हंसी ठिठोली के साथ भोजनादि से निबटकर मैं निद्रा देवी की गोद में समा गया। रात्रि में मधुर सपनों के कारण सुबह होने का आभास ही नहीं हुआ। पत्र-पत्रिकाओं में मैं अनेक रचनाओं में पढ़ा था कि ससुराल की होली स्मरणीय होती है। बहरहाल, सुबह सुबह कल्याणी और मेरी एक मात्र साली चाय का प्याला लिए मुझे उठाने लगी। उनकी आवाज में मधुरता थी। लेकिन उनके मुख में दबी हुई हंसी रोके रूक नहीं रही थी, मेरी सह धर्मिणी भी उनका साथ दे रही थी। मुझे लगा कि रात भर में ऐसा क्या हो गया जिससे ये दोनों मुझे देखकर हंस रही हैं ? बेट टी तो मैं लेता था लेकिन मैं सोचा कि हाथ मुंह धोकर ही चाय पिया जाये अन्यथा ये लोग मेरे बारे न जाने क्या धारणा बना लें ? बहरहाल, जब मैं बेसिन में मुंह धोने के लिए जैसे ही दर्पण में अपना चेहरा देखा तो एक बारगी मैं अपने को ही नहीं पहचान सका। मैंने देखा कि मेरे चेहरे में कालिख पुती हुई है और मुंछे बनी है। मैं भी अपनी हंसी को नहीं रोक पाया। मेरी हंसी सुनकर मेरी सासु जी भी वहां पर आ गयी। मेरा चेहरा देखकर वे भी हंस पड़ी। लेकिन छत्तीसगढ़ में दामाद के सामने परहेज किये जाने का विधान है। शायद इसी कारण वह अपनी हंसी को रोकर कल्याणी और इंद्राणी को डांटने लगी। लेकिन ‘बुरा न मानो होली है‘ के साथ सबकी हंसी छूट गयी। मैंने चाय पी और कुछ देर बाद मुझे लगा कि चाय में कुछ मिलाया गया है। बार बार मस्ती और हंसी से मुझे अंदाज हो गया कि चाय के साथ भ्ंाग पिलाया गया है। फिर तो हम दिन भर होली खेलते रहे। नजीर अकबराबादी होली की रंगीनियां कुछ यूं पेश करते हैं:-
नजीर होली का मौसम जो जग में आता है
वह ऐसा कौन हो जो होली नहीं मनाता है।
कोई तो रंग छिड़कता है, कोई गाता है
जो खाली रहता है, वह देखने को जाता है
जो ऐश चाहो, कि मिलता है यारों होली में।
मीठी मीठी प्यार की बोली बोलना मनुष्य सीख ले तब कहां हो दंगा-फसाद और लड़ाई-झगड़े। तब तो बस होली ही होली है। साहिर ने भी होली के इस सुहाने नजर और लुभावने पन को बड़ी गहराई से आत्मसात किया है। अकबरावादी की शायरी में चटकीली होली और उसका रंग ऐसे दिखता है जैसे शीशे में छलकता जाम हो:- जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की।
होली में जगह जगह फाग गाये जाते हैं। फाग में प्रणय, बिछोह, हर्ष और उत्साह का समावेश होता है। फाग का मौसम याने रंग गुलाल और अबीर की बौछार का मौसम। इस वक्त हर कोई खुशी में मस्त और रंगों में रंगा होता है। इस रंग में बिस्मिल भी रंगे हुए हैं:-
हम क्या बताएं कि क्या रंग है जमाने का
कहीं अबीर कहीं है गुलाल बेलों में।
कोई निहाल कोई शाद और कोई खुश
बदल गया है जमाने का हाल होली में
निराला जमा है रंग ऐसा
कि दूर है शामें सजा मलाल होली में।
उड़ा रहे हैं अब अहले जमीें अबीरो गुलाल
फलक पर निकलेंगे तारे भी लाल होली में।
दुआ यह है कि अहज्ज-ओ-दोस्त ऐ बिस्मिल
खुशी में यूं कहें हर साल होली में।
इस मस्ती के मौसम में रंगों की बौछार के साथ हम भी झूमने लगते हैं। ऐसे में जब प्रियतमा भी साथ हो तो रंग कुछ ज्यादा ही चढ़ने लगता है। लेकिन प्रियतमा का चेहरा तो घुंघट के अंदर छिपा है। ऐसे में क्या किया जाये ? बिस्मिल की प्रस्तुति देखिए:-
उठाओ चेहरे से नकाब होली में
हिजाब और फिर ऐसा हिजाब होली में।
खुदाई भर के तो अरमान हो जायें पूरे
मेरा ही दिल न हुआ कामयाब होली में।
पलक पे छाया है उड़ उड़के आज अबीरो गुलाल
अजब नहीं जो छुपे अफताब होली में।
वह जान बूझकर मुझसे गले नहीं मिलते,
हुई है खुद ही मिट्टी खराब होली मेें।
कहना न होगा कि होली राष्ट्रीय एकता का प्रतीक त्योहार है। वह एकता, अपनत्व और राष्ट्रीयता का भी प्रतीक है। इन रंगों में ही इसका उद्देश्य निहित है जिसे नजर अंदाज नहीं किया जा सकता।
▪️ प्रो. अश्विनी केशरवानी
▪️ 94252 23212
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