कविता, आख़िरी पन्ना – रमेश कुमार सोनी, बसना-छत्तीसगढ़
मैं पहाड़ों की श्रृंखलाओं में
कुछ किताबें पढ़ने गया था,
कुछ अच्छा सुनने की चाहत
मुझे खींचकर ले गयी थी
एक वृद्धाश्रम में
हाँ,वहीं जहाँ
कोई आना–जाना नहीं चाहता!
मुझे मेरी सहनशक्ति पर गर्व था,
सुनने की अपार शक्ति थी मुझमें,
चट्टानी छाती में एक बड़ा कलेजा लिए;
मेरी रेगिस्तान जैसी आँखों ने देखा–
शवासन में लेटे
ग्लेशियर जैसे ठहरे हुए लोग;
उन्होंने ना कुछ देखा,ना बोला और
ना ही कुछ सुना
सिर्फ देखते रहे मुझे
ढूँढते रहे मुझमें–
अपना बचपन,अपनी जवानी,
अपनी गलतियाँ और
अपने रिश्तों की दुनिया |
मेरी आँखें सागर हुईं,
जिगर चाक हुआ,
शब्द गूँगे हो गए
मैं लौट रहा हूँ जिंदगी के
इस आखिरी जिन्दा पड़ाव से
इनकी आँखों में
सिर्फ एक ही भाषा जिन्दा है–
ढाई आखर की
उम्मीदों के इस रेगिस्तान में
चिंता,दुःख,हर्ष…..का प्रवेश मना है|
चौकीदार ने पूछा
किनसे मिलना है साहब?
मैंने कहा–
मैं अपने स्वयं के
भविष्य से मिलने आया हूँ
मैंने यहाँ देखा-
मौत के इंतज़ार की मरीचिका में
इन खुली किताबों का
आखिरी पन्ना कोरा है
बिलकुल कोरा
कफ़न जैसा शुभ्र,धवल….|
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