





कविता : बसंत राघव
कवि बसंत राघव
संवेदना
– बसंत राघव
[ रायगढ़ छत्तीसगढ़ ]
तानकर प्रत्यंचा
तीक्ष्ण शर संधान हेतु उद्यत
छुपा बैठा एकाग्र
झाड़ियों की ओट में
वह सतर्क अहेरी
प्रतीक्षारत
कई क्षण ख़र्च हो गए
कुछ इसी तरह..इसी तरह
कोई प्यासा हिरण , सांभर या जंगली सुअर
नहीं आये निकट जलाशय के।
प्राणी मात्र का करते – करते आखेट
मानो थक हार गया था
काल धनुर्धर स्वयंमेव
एक ही मुद्रा में बैठे -बैठे
टखनों में हो आया दर्द
छिल गए घुटने और
खिंचने लगे
प्रत्यञ्चा को खींचते हुए हाथ
क्षुधातुर बच्चों के कुंभलाए चेहरों को
याद करते हुए
वह जैसे हो गया और भी अवसन्न
उधर रवि अस्ताचल से ले रहा था विदा
पत्नी का मुरझाया चेहरा
छप जाता था
बार – बार उसकी स्मृतियों में
लगातार कई-कई दिनों से
लौटता रहा है वह खाली हाथ
विकल-व्याकुल
पराजित मुद्रा में
तभी परिश्रांत एक मृगी
चौकड़ी भरती –
ठिठक सी गई उसी जलाशय के पास
प्यास बुझाने के पूर्व, देखने लगी
वह चारों ओर
कहीं नहीं थीं जरा सी हलचल
मगर फिर भी न जाने कैसे
उसे मिल गया आभास
आसन्न खतरे का
कि शायद झुरमुट के पीछे
कोई छुपा बैठा है हिंस्त्र पशु
उसके रक्त का प्यासा…
या घोर स्वार्थी दो पाया मानुस
और तभी झुरमुट की ओर से आई हवा,
मानुस गन्ध टकरायी
उस मृगी के श्वास से।
वह भूल गई कुछ क्षण के लिए
अपनी प्यास
जादू भरी उसकी
बड़ी – बड़ी विस्फारित आखें
देखने लगी एकटक
उस झुरमुट की ओर
वह भर सकती थी चौकड़ी त्वरित
लेकिन न जाने क्यों
वह खड़ी रही अविचल स्तब्ध
शायद धरती ने पकड़ लिए उसके खुरों को
इधर कर ली थी आक्रांत अहेरी ने
अपनी पूरी तैयारी
लक्ष्य भेदने की
उसकी निष्ठुर आखें क्रेन्द्रित थीं
अपने शिकार पर
मृगी की दीर्घायित आखों में
तैर रहा था एक निर्दोष सारल्य
किंचित नहीं थी
छाया मृत्यु -भय की
उधर वह लक्ष्य भेद करना ही चाहता था
कि सहसा कांप गए उसके
अपने ही हाथ,
भींग गए नयन,
फिर – फिर झटक कर
अपनी सारी भावुकता
वह छोड़ना ही चाह रहा था तीक्ष्ण वाण
कि उसके भीतर कहीं, कोई अज्ञात सा
फूट पडा सोता
मानवीय करुणा और संवेदना का
ओह! इतनी सुन्दर जिसकी आखें हैं –
इतनी सुन्दर जिसकी देह रचना है –
देखते ही देखते धूल में मिल जाएगी
‘नहीं’…. वह चिल्लाया
वह धनुष नीचे रखना ही चाहता था
कि उसके मन ने कहा
‘इतना स्वादिष्ट जिसका मांस है?”
वह लड रहा था
स्वयं से , अपने आप से
लेकिन आखिरकार
उस आखेटक ने रख ही दिये नीचे
अपने धनुष वाण
मृगी उसे निहारती रही अपलक जडवत
सम्मोहित सी
अब वह मुक्त थी अभयदत्ता
चाहती तो एक ही पल में चौकड़ी भरकर
हो सकती थी ओझल
किन्तु नहीं, वह धीरे – धीरे
आयी उस झुरमुट के पास
जहाँ बैठा था वह बावरा अहेरी
जिसकी स्निग्ध आखों में
पसर गई थी आश्वस्ति – तृप्ति।
मृगी भी खड़ी थी निःशंक
कि अहेरी ने दौड़कर – पागलों सा
उठा लिया उसे अपनी गोद में,
चिपटा लिया अपनी छाती से
और रोने लगा धारासार
मृगी के तरल नयनों में
उसे दिख रहा था
उसका अपना परिवार….
उसका घर – संसार
०००
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