कविता, सिख रही हूँ- दिलशाद सैफी
इन मौसमों को बदलना तो आसान नहीं है
अब खुद को बदलने का हुनर सिख रही हूँ..!
धूप से सिख लिया रंगों को चुराने की अदा
गिरगिट से रंग बदलने का हुनर सिख रही हूँ..!
बहुत भीग लिया बे मौंसम बारिश जब हुई
अब बारिशों से बचने का हुनर सिख रही हूँ..!
इन सर्दियों में खुद को समेटे रहते थी हरदम
अब गुनगुने धूप में बैठने का हुनर सिख रही हूँ…!
ये रिश्ते की डोरी कच्ची थी शीशे सी नाजुक भी
अब इन सबको सम्हालने का हुनर सिख रही हूँ..!
क्यों कुरेद रहे हो तुम, जख्मो़ को मेरे बे वज़ह
जब इन ज़ख्मों को सीने का हुनर सिख रही हूँ..!
मेरी आदत थी बात-बात में टूट जाने की यारों
अब देखो खुद को जोड़ने का हुनर सिख रही हूँ..!
जाने कैसे झूठा मुखौटा लगा कर छलते है ये लोंग
अब इसी जमाने से चालाकी का हुनर सिख रही हूँ..!
ठहरे हुए पानी सा जीना अब मंजूर नहीं मुझकों
नदीयों की तेज धाराओं सा बहना सीख रही हूँ…।