कविता, इन दिनों बच्चे -पल्लवी मुखर्जी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
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फूलों को तो बस
मुस्कुराना है
खिलखिलाना है
बेहयाई की भी
हद है
जबकि इन दिनों
दुनिया के तमाम बच्चें
नहीं जाते
आकाश के नीचे
खुले मैदान में
उछालते नहीं गेंद
ऊपर
बहुत ऊपर
सुनो
क्या तुमने सुना
किसी बच्चे का
खिलखिलाना
किसी गली में
या किसी नुक्कड़ पर
मैंने
नहीं सुना
मैं
सुन रही हूँ
बर्तनों की
टन-टन
खड़-खड़,
बाल्टियों का
टकराना
और
अंजुरी भर पानी से
खुद को भिगोना
नदी
बहुत दूर हो चुकी है
हाँ
थोड़ी सी मिट्टी
ज़रूर है मेंरे पास
बो दिये थे
कुछ बीज
जो
बन गये हैं
पत्तों से आच्छादित
पेड़
पेड़ पे बने
घोंसले में
बुलबुलों का चहकना
सुन रहे हो न
तुम
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